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________________ इत्यादि द्वितीय अध्याय के अधिकरणों से श्रुत्यर्थ का निर्णय करते हुए, ब्रह्म में औपाधिक विशेषताओं का तथा जीव पुरुषोत्तम के अभेद का पहिले ही निरास कर चुके हैं । अतः परमात्मा की व्यापकता, जीव की गंतव्यता में बाधक नहीं होती । प्रारब्ध भोग के बिना तो, उनकी प्राप्ति संभव है नहीं, जब भोग की समाप्ति हो जायेगी तभी उनकी निर्विघ्न प्राप्ति हो जायेगी । दूसरी बात यह है कि सभी उपास्य रूपों को निर्गुणता तो स्वाभाविक है ही, उपासक सगुण है अतः वह अपनी भावनानुसार उपासना करता है और उसी तारतम्य से फल भी पाता है । जो भगवत् कृपा से प्राकृत गुणों से रहित हो जाता है उसे निर्गुण विद्यावान कहते हैं । निर्गुण ब्रह्म विद्यावान भी प्रारब्ध भोग भोगते हैं, ऐसा तो तुम्हें कहना पड़ेगा, यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो प्रवचन ही असंभव हो जायेगा जिससे ज्ञानमार्ग का ही उच्छेद हो जायेगा। अर्थात् ज्ञानमार्ग के लिए जो यह उपनिषद् का प्रवचन है कि-'ते ब्रह्मलोके तु परान्तकाल एव" वह प्रारब्ध भोग की समाप्ति के बाद का ही सूचक है। "वेदांत विज्ञान विनिश्चितार्थाः" में जिन विशिष्ट धर्म युक्त जीवों के मोक्ष की चर्चा की गई है, उनकी मुक्ति में विलम्ब की क्या आवश्यकता थी विलम्ब ही प्रारब्ध भोग का सूचक है । न च कार्ये प्रतिपत्त्यभिसंधिः ।४।३॥१५॥ अपि च "ब्रह्मविदाप्रोतिपरम्" इति संक्षेपेणोक्त्वा "तदेषा अभ्युक्ता" इति तद्विवरिकां ऋचं प्रस्तुत्य सोक्ता "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" "यो वेद निहितं गुहायां परमेव्योमन्" साऽनुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विवश्चिता "इतिऽ अत्रोपक्रमानुरोधेन परेणव ब्रह्मणासह सर्वकामभोग लक्षणा प्रतिपत्तिरुच्यत इति कार्यरूपे वस्तुमात्रे प्रत्तिपत्तिर्नक्वापि श्रुतेरभिप्रेताऽतोऽत्रापि परमेव ब्रह्मपदेनोच्यते । ऋगर्थत्वादानन्दमयाधिकरणप्रपंच इति नात्रोक्तः । __"ब्रह्मविद परम को प्राप्तकरता है" ऐसा संक्षेप में उल्लेख करके "तदेषाsभ्युक्ता" इत्यादि उसकी विवेचना करने वाली श्रुति को प्रस्तुत करके "ब्रह्मसत्यज्ञान अनन्तरूप है" जो हृदयस्थगुहा के दिव्याकाश में निहित परमात्मा को जानता है "वह विद्वान परमात्मा के साथ समस्त कामनाओं को भोग करता है" इत्यादि उपक्रम में परम ब्रह्म के साथ सर्वकामभोग लक्षण वाली प्रतिपत्ति कही गई है काररूप समग्न वस्तुओं की प्रतिपत्ति श्रुति को अभिप्रेत नहीं है इस
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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