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________________ वरुण आदि लोकों में जाते हैं, वहाँ तो उन पुरुषों का उल्लेख है नहीं, उन लोगों की ब्रह्मप्राप्ति होती है या नहीं । विचारने पर तो यही समझ में आता है किउल्लेख य होने से ब्रह्मप्राप्ति नहीं होती । इस पर सूत्रकार सूत्रप्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि-आतिवाहिक वहाँ भी रहते हैं । तात्पर्य यह है कि-जिस उपासक की जितने फल भोग के बाद ब्रह्मप्राप्ति होनी है उसकी उसके बाद ही होगी, इसलिए कौषीतकि श्रुति में प्रजापति लोक के बाद ब्रह्मलोक का उल्लेख कर दिया गया। यदि ऐसा न करते तो किए जाने वाले साधनों की ब्यर्थता सिद्ध होती और उन साधकों की ब्रह्मप्राप्ति को बतलाने वाली श्रुति से भी विरुद्धता होती। तथा च यत्रातिवाहिकश्रुतिर्नास्ति तत्राप्यातिवाहिको भगवदीय एव ब्रह्मप्रापयतीति ज्ञेयम् । वस्तुतस्तु बहव एव तादृशाः सन्तीति ज्ञापनाय बहुवचनमत्रोक्तम्, तन्मध्येकश्चनागत्यैक एव नयति इति ज्ञापनाय श्रुतावेकवचनम् । तत्रहेतुस्तल्लिगात् । तत् पुरुषोऽमानव इत्यत्र ब्रह्मसम्बन्धित्व लिंगमुच्यते । तेनेदं ज्ञाप्यते यथाविद्याबलात् तत्तल्लोकप्राप्तिस्तथैव ब्रह्मप्राप्तिरपीति न, किन्तु भगवदीयपुरुषानुग्रहेणैवेति। ___ जहाँ के वर्णन में आतिवाहिक सम्बन्धी श्रुति नहीं है, वहाँ भी भगवान के आतिवाहिक पार्षद ब्रह्म की प्राप्ति कराते हैं । वास्तविकता तो यह है कि वैसे अनेक पार्षद हैं, इसलिए यहाँ वहुवचन का प्रयोग किया गया है। उनमें से कोई एक ही आकर ले जाता है, इसलिए श्रुति में एकवचन का प्रयोग है। "वह पुरुष अमानव है" इसमें ब्रह्म सम्बन्धी दिव्यपुरुष का उल्लेख है, जिससे ज्ञात होता है कि-जैसे उपासना के बल से अन्यान्य लोकों की प्राप्ति होती है वैसे ही बह्मप्राप्ति भी होती हो सो बात नहीं है, वह तो भगवान के पार्षद को कृपा से ही होती है। न च पूर्वपूर्वलोकाधिष्ठातृदेवा उत्तरोत्तर लोकं प्रत्यातिवाहिका यथा तथा ब्रह्मप्राप्यव्यवहितपूर्वलोकदेवा एव ब्रह्मप्रापका इति तत् पदेन स लोक एवोच्यत इति वाच्यम् । तदेतरलोकेषु तदकथनं यथा तथाऽत्रापि न कथयेत्। लोकाधिष्ठातृदेवानामातिवाहिकत्वोक्तावचिर्लोकप्रापकाऽतिवाहिकस्याभावात् तत्प्रा. प्ति स्यात् । तथा सति देवयानमार्गएवोच्छिद्येत । अतो यथा विद्याबलेनैवाचिषः प्राप्तिस्तथेतरेषामपोति बुध्यस्व । कस्यचिदल्पलोकगत्यनन्तरमेव ब्रह्मप्राप्तिः । कस्यचिद् वहुलोकगत्यनन्तरं सोच्यत इति । भोगभूमित्वमेव तेषामव
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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