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________________ ( ६०३ ) अतः उनके बीच में वायुलोक के प्रवेश का प्रश्न ही नहीं उठता। भूलोक के ऊपर अंतरिक्ष लोक है उसके ऊपर द्युलोक है । " वायु अंतरिक्ष का अधिपति है" सूर्य द्युलोक का अधिपति है "इन दोनों श्रुतियों के अनुसार पूर्वापर क्रम से आदित्य लोक के पहले, भूलोक और संवत्सरलोक के बाद बीच में वायुलोक का प्रवेश मानना चाहिए । ननु "ते अर्चिषमभिसंभवंति अचिषोऽहः" इत्यादि श्रुतिरुक्तमुक्तमनूद्यापादानत्वं वदंती पूर्वोत्तरयोख्यवधानं सूत्रयतीतिनोक्तमादरणीयमिति चेत् । सत्यम्, यस्योपासकस्य न वायुलोकभोगस्तं प्रति सोक्तियंम्य तु तद्भोगस्तस्यो - तरीतिर्मार्गक्यादिति नानुपपत्तिः कांचित् । केचित्तु - " स एतं देवयानं 'पन्थानमापद्याग्निलोकमाच्छति, स वायुलोकं स वरुणलोकं" इत्यविशेषेण वायुरुपदिश्यते । मिथः पौर्वापर्य प्रापकपदाभावात । " यदा वै पुरुषोऽस्माल्लोकात् प्रति स वायुमागच्छतितस्मै स तत्र विजहीते यथारथ चक्रस्य खं तेन स ऊर्ध्व आक्रमते स आदित्यमागच्छतीति” श्रुत्याऽदित्यात् पूर्वी वायुविशेषेणोपदिश्यत इत्यब्दादित्ययोरन्तरन्तराले निवेषायितन्य इत्यर्थं वदन्ति । स चिन्त्यते - " यथा तेन स ऊर्ध्व आक्रमते स आदित्यमागच्छति' इति विशेषोपदेश इत्युच्यते तथा “स वरुणलोकम्" इत्यत्रापि वक्तुं शक्यम् । न च "स आदित्यमागच्छति' इत्यत्र तच्छब्दस्य पूर्वं परामशित्वाद्वायुलोकगतस्यैव पूर्वत्वात् तथेति वाच्यम् । " अग्निलोकमागच्छति स वायुलोकं स वरुणलोकं” इत्यत्रापि तुल्यत्वात् । यदि कहें कि - " अचिलोक को प्राप्त कर अह लोक को जाता है" इत्यादि श्रुति में तो पूर्वोत्तर क्रम में कोई व्यवधान नहीं दीखता अतः बीच में वायुलोक प्रवेश की बात समझ में नहीं आती । सो तो ठीक ही है, जिस उपासक को वायुलोक के भोग की आवश्यकता नहीं है उसके लिए वह उक्ति है और जिसके लिए उसका भोग आवश्यक है उसके लिए वायुलोक जोड़कर कहना उचित है, मार्ग तो एक ही है अतः कोई असंगति नहीं होगी । किसी शाखा में तो " वह इस देवमार्ग को प्राप्त कर अग्निलोक को जाता है, फिर वायुलोक और फिर वरुण लोक को जाता है" इत्यादि स्पष्ट वायु का उपदेश दिया गया है । इसमें परस्पर पौर्वापर्य प्रापक पद नहीं है । " जब पुरुष इस लोक से जाता है तो वह वायुलोक प्राप्त करता है, वहाँ से वह रथचक्र के मध्यवर्ती अन्तराल की भाँति अतिक्रमण करके ऊपर आदित्य लोक को प्राप्त करता है" इत्यादि श्रुति में भी आदित्य से पहले वायु विशेष का उपदेश दिया गया है, इससे निर्णय होता है कि वरुण और आदित्य लोक के बीच में वायुलोक
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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