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________________ ( ५६ ) नहीं अनेक विशिष्ट पर्वों के रूप में एक ही मार्ग का निरूपण करने वाली श्रुति कभी किसी पर्व का निरूपण करती है कभी नहीं करती इसका क्या कारण है ? यदि कहें कि - उपसंहार में तो सभी एक ही केन्द्र पर पहुँच जाते हैं, इसलिए किसी शाखा में किसी पर्व का उल्लेख न होने में कोई हानि नहीं है, किन्तु जिसे अन्य शाखाओं का ज्ञान नहीं है उसके लिए तो असंभव ही है, उसकी दृष्टि में तो श्रुति की न्यूनता ही सिद्ध होगी । सर्व शाखाविद के लिए ही श्रुति का वचन है ऐसा कहना ठीक है, ऐसा मानने से तो अल्पज्ञों के लिए असंभव ही होगा अतः यही कहना उचित है कि -अपनीअपनी शाखाओं के ज्ञाताओं के दृष्टि से ही श्रुति का वचन है । अध्ययन विधि से भी भिन्नता निश्चित होती है । यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो शाखान्तरों में कहे गए पर्वो की भिन्नता का कोई समाधान नहीं हो सकेगा । उपसंहार से ही निर्दिष्ट स्थान की प्राप्ति निश्चित होती है । जैसे कि विभिन्न दिशाओं में रहने वाले किसी एक ही गाँव में विभिन्न मार्गों से पहुँचते हैं, वैसे ही श्रुति में भी विभिन्न स्वतंत्र मार्गों से एक ही ब्रह्मप्राप्ति का उल्लेख किया गया है । नचैवमर्थं तयोः पथोरिति द्विवचनानुपपत्तिर्जायस्वम्रियस्वेत्यस्य तृतीयत्वं चानुपपन्नमिति वाच्यम् । अर्चिरादिक मुक्त्वोपसंहरत्येष देवयानः पंथा इति श्रुत्यन्तरे च स एनं देवयानं पंथानमापद्याग्निलोकमागच्छतीति । तथा च ब्रह्म प्रापकाः सर्वेमार्गा देवयाना इत्युच्यन्ते । देवी संपविमोक्षायेति भगवद् वाक्याद्दव्यां संपदि ये जातास्ते देवा इत्युच्यन्ते तेषां यान्तं गमनं यत्रेति ते सर्वेऽपि मार्गा देवयानशब्देनोच्यन्ते । द्वितीयस्त्वविशिष्टः । एवं दित्वं त्रित्वं चोपपद्यते । न चोक्तरीत्या लाघवादेकएव समंतव्यः । स्वतः प्रमाणभूताहि श्रुतिः । सा येन यदायाश्रुता तदर्थावधारणेद्वितीयस्या अनुपस्थितत्वान्न लाघव गौरवत विचारावसरः । क्वचिदुपस्थितौ चोक्तबाधकै रूपसंहारानवकाशः । अपरंच, ब्रह्मविदः क्रममुक्तौ गन्तव्यो मार्गो ह्ययमुपदिश्यते । तत्तल्लोके तदाऽनन्दानुभवश्चावश्यकः । तथाचोपासन भेदात् फलभेदस्यावश्यकत्वान्मार्ग भेदोऽपि तथेति, सर्वेष्वेकरूपफल प्रसंजक उपसंहारो न युक्तः । उक्त मान्यता से " अर्थतयोः पथोः" वाक्य का द्विवचनत्व तथा "जायस्व म्रियस्व" का तृतीयत्व अंसिद्ध हो जायेगा, ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि - अचिरादि का बर्णन करके " एषदेवयानः पथाः " इस वाक्य से उपसंहार किया गया है, दूसरी श्रुति भी " ए एनं देवमानं पंथानमापद्याग्निलोकभागच्छति "ऐसा उल्लेख करती है ।" ब्रह्म प्रापक सभी मार्ग देवयान हैं "ऐसा
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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