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________________ ( ५८५ ) विद्वान् न विभेति कुतश्चन" इति "एतं ह वा व नं तपति, किमहं साधु नाकरवं किमहं पापमकरवम्" इति । __ अत्र पूर्वार्द्धन दुर्जेयत्वं, उत्तरार्द्धन तत्सत्ता च बोध्यते । अन्यथा मनसोऽप्राप्यस्यवेदनकथनं विरुद्धं स्यादतो दुर्जेयत्वेनैव मिग्राहकमान सिद्धं तदित्यर्थः । चकारात्तादृशानामनुभवः परिगृह्यते । उक्त प्रकार को मुक्ति का क्या प्रमाण है ऐसा आकांक्षा की पूर्ति के लिए सूत्रकार प्रमाणतः आदि सूत्रांश प्रस्तुत करते हैं, कहते हैं कि-श्रुति प्रमाणों से निश्चित होता है। "मन सहित वाणी, जिसे न पाकर लौट आते हैं, आनंद ब्रह्म को जानने वाला किसी से नहीं डरता" तथा "एतं हवा व तपति" इन श्रुतियों में से प्रथम तो दुर्जेयता और बाद में उसकी सत्ता का उल्लेख किया गया है । मन से अप्राप्य वस्तु का वर्णन करना विरुद्ध बात है, उसको दु यता ही उसकी जानकारी का चिह्न है । भक्त जनों का अनुभव भी उक्त रहस्य की जानकारी देता है। . __ तहि ब्रह्मविदामिव तादृशानां भक्तानामपि स्वमार्गोपदेशनं क्वचिच्छ यते, न चैवम्, अतः पूर्वोक्तं न साधीय इति भातीत्युत् सूत्रमाशंक्य तत्र हेतुमाह यदि भक्तों के अनुभव की बात है तो, ब्रह्मविदों के अनुभव की बात जैसे श्रुति में आती है वैसे ही भक्तों की भी होनी चाहिए, सो तो मिलती नहीं, दुर्शेयता वाली बात समझ में नहीं आती, इत्यादि शंका का समाधान. करते हैं नोपमहेंनाऽतः ॥४॥२॥१०॥ उपदेशनं तदास्यात् यदि ब्रह्मविदामिव तेषां स्वास्थ्यं स्याद यतस्तेषां विरहिदशा प्रियसंगमदशा चेति दशाद्वयमेव भवति नान्यां । पूर्वस्यास्तस्यास्त्वतिदुःसहत्वेन सर्वेषां भावानां उपमद्देन तिरोधानेनोपदेशो न भवति इत्यर्थः । संगमे तु, अतः पुरः प्रकटपरमानन्द स्वरूपाद् भगवत एव हेतोरुपदेशोऽन्यस्मै नः भवतीत्यर्थः । न हि भगवदग्रे स सम्भवतीतिभावः । ___ भक्त तो अपने अनुभव का उपदेश तभी दे सकते हैं जब कि वे ब्रह्मवेत्ताओं की तरह अपने आप में रह सकें, वे तो सदा विरहीदशा में या प्रिय संगम दशा, इन दो में ही रहते हैं, इसके अतिरिक्त उनकी कोई तीसरी दशा नहीं
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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