SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 663
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५८० ) भवति ? " ऐसा प्रश्न करने पर याज्ञवल्क्य ने पापपुण्य के विभागानुसार उत्तर दिया कि - " पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा, भवति पापः पापेन" इत्यादि, इससे निर्णय होता है कि पूर्वोक्त श्रुति का प्रतिपाद्य पुरुष कर्माश्रित रहता है । प्राण के अनुत्क्रमण बतलाने वाली उक्ति तथा सम्पातलय की उक्ति से तो विद्वद्विषयता निश्चित होती है, दोनों उक्तियां विद्वान् से ही संबद्ध हो सकती है । किन्तु अग्रिम जिस श्रुति सों कर्माश्रयता निश्चित होती है, उससे विरुद्ध धारणा बनती है, पूर्वोत्तर की विरुद्धता से विषय का निर्द्धारण नहीं हो पाता। इस पर हम प्रतिवाद करते हैं कि उक्त श्रुति मर्यादामार्गीय ज्ञानी से ही संबद्ध है । उक्त प्रश्नोत्तर में "क्व तदा पुरुषों" ऐसा प्रश्न करने से ही काम चल सकता था किन्तु प्रश्न असाधारण मर्यादामार्गीय पुरुष संबंध में करना था इसलिए "क्वायं " ऐसा विशेष पद प्रयोग किया गया । इसी प्रकार अग्रिम विचार को भी तद् विषयक ही मानें । यदि कहै कि उक्त बाधा तो है ही, तो कृपया 'वेदांतवाक्यों का समाकलन करके विचार करें आपकी भ्रान्ति दूर हो जाएगी । देखिये मर्यादा मार्ग में विधि को प्रधानता होती है, उसका उसी प्रकार का नियम है, उस मार्ग में तो निश्चित है कि, ऐसा करोगे तो ऐसा फल पाओगे, बिना कुछ किए ही भगवदिच्छा भी इस मार्ग में सम्भव नहीं है, यह तो कर्म प्रधान मार्ग है । आ भाग का आशय है कि-वाणी से लेकर रेत आदि के लय का तात्पर्य है कि उसका प्रारब्ध भी नष्ट हो जाता है वह शुद्ध जीव विधि - का अविषय हो जाता है अर्थात् उसके लिए कोई विधि शेष नहीं रह जाती अतः वह कभी पुष्टि में प्रविष्ट होता है या नहीं, उतने पर भी क्या वह मर्यादा मार्गी ही रहता है या पुष्टि में भी प्रविष्ट होता है, ऐसा प्रश्न होने पर यह बात तो 'ईश्वरेच्छा पर ही निर्भर है, इसको दुर्ज्ञेय मानकर श्रुति स्वयं भी जो कुछ निर्धारित करती है वह भी रहस्य है, स्पष्ट न कह कर परिणाम का ही "तो "ह" इत्यादि से उल्लेख करती है । इस प्रसंग में कर्म पद मर्यादा मार्ग का सूचक है । मर्यादा मार्ग में ही उसकी स्थिति है, उससे ही मुक्ति भी होती है । इसीलिए उसकी प्रशंसा भी की गई है। ईश्वर सर्वकरण समर्थ हैं फिर भी मुक्ति देने में कर्म को अपेक्षा उस मार्ग में बतलाई गई है । "पुण्यो वा" इत्यादि में मर्यादा मार्ग काही उल्लेख किया गया है । ननु मर्यादामार्गीयो, भक्तो ज्ञानी च भवतः । उक्त निर्णयस्तु ज्ञानमार्गीय 'विषय एव । भक्त तु तादृशयपि कदाचित् पुष्टावपि प्रवेशयति इत्याशंक्य निर्णयमाह -
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy