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________________ ( ५७४ - ) ब्रह्माप्येति" इत्यन्तेनवाक्येन निगद्यते। अत्र प्राण शब्देन प्राणः सर्वन्द्रियाणि चोन्यन्ते । आत्मकाम शब्देन भगवद्वाचकात्मपद ग्रहणेन भक्तस्य स्नेहातिशयजनित प्रभुदिक्षाय॑तिशयस्तादृशो येन मरणमेव संपद्यते, यदि प्रभुप्राकट्ये क्षणमपि विलम्बः स्यात् । अतो भगवत्प्राकट्येनैवात्मस्थितिरिति ध्वन्यते । भक्तिमार्गे प्राकट्यस्यैव परमफलत्वेन तद्दर्शनेन आप्तकामो भवति । तथा साक्षादाश्लेषादि कामनायां प्राचीनेदेह प्राणादेस्तद योग्यत्वात्त तत्रैव लीना भवन्ति । बहिः प्रकटस्यैवान्तरपि प्राकट्यादुत्क्रमणाभाव उच्यते । आत्मातिरिक्तस्य गतिमुक्त्वा तस्य तामाह-"ब्रह्म वसन् ब्रह्माप्येति" इत्यनेन । उक्तरीत्या पुरुषोत्तमात्मक लल्लीलोपयोगिदेहेन्द्रियादिसम्पत्त्या ब्रह्म वसन्नतु ब्रह्मातिरिक्त देहादिमानपि तादृशः सन् ब्रह्म वृहत्वावृहणत्वात् पुरुषोत्तम स्वरूप प्राप्तो भवनीत्यर्थः। अन्यथा जीवस्य ब्रह्मांश त्वेनान्दांशाविर्भावेन च ब्रह्मत्वे प्राणादिलयोक्तया ब्रह्म, तदितर व्यवच्छेदे चानुक्तसिद्धेसति ब्रह्मवसन्निति वा न वदेत् । अत एवैस्तदनेश्लोकोक्तिः 'मोऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते । “इति । मृतिधर्मवच्छशरीरं हि मर्त्य, तदवत्वेन जीवोऽपि तथोच्यते । तथाचार्य पूर्व तादश एव, अथ पुष्टिलीलाप्रवेशानन्तरममृत उक्तरूप शरीरवान् भवति, ततोऽत्र अस्मिन्नेव शरीरे ब्रह्म सम्यगश्नुते । भगवता क्रियमाण लीलारसमनु भवतीत्यर्थः। इसी तात्पर्य से वाजसनेयो शाखा में-"अधाकामयमान्" ऐसा उपक्रम करते हुए “आत्मकाम आप्तकाम होता है, उसके प्राण उत्क्रमण नहीं करते, यहों लीन हो जाते हैं, ब्रह्म होकर ब्रह्म को प्राप्त करता ह" ऐसा अंत में कहा गया है। इस वाक्य में प्राण शब्द से प्राण स्वरूप समस्त इन्द्रियों का उल्लेख किया गया है। आत्मकाम शब्द से भगवद वाचक आत्म पद में उल्लेख से, भक्त की, स्नेहातिशय जनित प्रभु दर्शन को उत्कृट अभिलाषा युक्त मृत्यु का द्योतन होता है । यदि प्रभु के प्राकट्य में एक क्षण का भी विलम्ब होता है तो उस परिस्थिति में भक्त की छटपटाहट के फल स्वरूप प्राकट्य से जो आत्मतृप्ति मिलती है, वही आत्मकाम शब्द का तात्पर्य हैं। भक्ति मार्ग में प्राकट्य ही परम फल है, प्रभु के दर्शन से ही भक्त आत्मकाम होता है । साक्षात् होने पर जब भक्त को आश्लेप आदि की कामना होती है तो उसकी प्राक्तन देह इन्द्रियों आदि का तत्क्षण ही लय हो जाता है, क्योंकि वे इन्द्रियाँ आदि भगवदाश्लेश के योग्य नहीं होती। बाहर के प्राकट्य से, आन्तरिक प्राकट्य को स्थिति सो जाती है जिसके फलस्वरूप प्राणों का उस्क्रमण नहीं
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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