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________________ चतुर्थ अध्याय द्वितीय पाद १ अधिकरण : वाङ मनसिदर्शनाच्छन्दाच्च | ४|२| १ || पूर्वपादे लौकिकशरीरे क्षपयित्वा अलौकिकं तत्प्राप्य फलेन संपद्यत इति निरूपितम् । अथात्रेदं चिन्त्यते, भक्तस्य सूक्ष्म शरीरस्य क्षपणं नाम. किं तत्स्वरूपनाशनमुत मणिस्पर्शादयश्चामीकरत्वमिव तस्यैवालौकिकत्व संपादनं भगवदनुग्रहादिति । अत्रोत्तर एव पक्षः साधीयानिति भाति । तथाहि —यथा पूर्व संसारिण एव जीवस्य तदनुग्रहात् पूर्वावस्थापगमो मुक्त्यवस्था चोच्यते तथात्राऽपि वक्तुमुचितत्वात् । " न तस्मात् प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रैव समवलीयन्ते” इति श्रुतिस्तु जीवस्य सायुज्य मुक्तिकाले तत्प्राणादीनामपि तथैवाहात एवाग्रे "ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति" इत्युच्यते । पुष्टिमार्गीयस्योक्तमुक्तयभावान्नेयं तद्विषयमिति प्राप्ते प्रतिवदामः । ब्रह्मांशत्वेन जीवस्यानंदात्मकत्वान्निर्दोषस्वरूपत्वान्नित्यत्वाच्च दोषाणां वागंतुकत्वात्तदपगमे तस्यतथात्वमुचितम् । प्राणादयस्तु नताशा इति तदृष्टान्तेनात्रापि तथात्वं न वक्तु ं शक्यम् । देहेन्द्रियातुहीनानां बैकुण्ठपुरवासिनामिति श्रीभागवत वाक्याच्च । पूर्वपाद में, लौकिक शरीर में पाप पुण्य छोड़कर अलौकिक शरीर को प्राप्त कर फलावाप्ति का निरूपण किया गया। अब ये विचार करते हैं कि-भक्त का सूक्ष्म शरीर का जो क्षपण होता है, क्या वह स्वरूप नाश होता है अथवा स्पर्शमणि के स्पर्श से लोह जैसे स्वर्ण बन जाता है, वैसे ही भगवदनुग्रह से उस सूक्ष्म शरीर में ही अलौकिकता आ जाती है ? इसका दूसरा पहलू ही समझ में आता है । जैसे कि – संसारी जीव को, भगवदनुग्रह से पूर्वावस्था की समाप्ति को मुक्त्यवस्था कहते हैं, वैसे ही इसको भी मानना चाहिए। " इसलिए प्राण उत्क्रमण नहीं करते यहीं लीन हो जाते हैं" इत्यादि श्र ुति, जीव के सायुज्य , मुक्ति के समय उसके प्राण आदि का वहीं लीन होना बतलाती है । उक्त श्रुति में ही आगे कहते हैं - " ब्रह्म होकर ब्रह्म को प्राप्त करता है ।" पुष्टिमार्ग में सायुज्य मुक्ति होती नहीं अतः यह श्रुति पुष्टिमार्गीय नहीं है, इस पर हम
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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