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________________ ( ५६८ ) संभवः तयैव तन्नाशाश्चेति निरूपितम् । अध पुष्टिभागींयस्य दिनैव भोगं प्रारब्धं नश्यति न वेति विचार्यते । तत्र भोगेकनास्य स्वभावत्वात्तस्य न तं विनाऽस्यापि तन्नश्यतीति प्राप्ते निर्णयमाह । एकेषां पुष्ठिमार्गीयाणां भक्तानामुभयोः प्रारब्धाप्रारब्धयोर्भोग विनैव नाशो भवति । कुत एतत् ? तत्राहअतः, श्रुतेः कर्मणे ज्ञाननाश्यत्व निरूपिकायाः । ब्रह्मविद एवं प्रवचनादि निरूपणेन तदनादप्रारब्धकर्माक्षेपक श्रुतेश्च । अत्यापि श्रुतिः पठ्यते - "तस्यपुत्रा दायमुपयन्ति सुहृदः साधुकृत्यां द्विषन्तः पापकृत्यम्" इति । ज्ञानभोगाभ्यां कर्मनाश निरुपक श्रुत्याऽस्याः श्रुतेविरोध परिहारावश्यं विषय भेदो वाच्यः न च काम्यकर्म विषयेर्यं श्रुतिरितिवाच्यम् । तदधिगम उत्तरपूर्वाधयो रश्लेषविनाशाविति सूत्रेणे तस्याप्येवमिति सूत्रावयवेन चाऽविशेषेणारब्धातिरिक्तकर्मणोरखिलयोर्नाशनिरूपणात् । पापकृत्यायां काम्यत्वाsसंभवाच्च । तस्मादत्यनुग्रह भाजनस्य भक्तस्य स्वप्राप्तिविलम्बमसहिष्णुर्भगवान् अस्य प्रारब्धमेतत्संबंधिगतं कृत्वा तस्यतेन भोगं कारयति । प्रारब्धं भोगेकनाश्यमिति स्वकृतमर्यादापालनाय न नाशयति । न च तयोरमूत्त त्वेनाभ्यागम प्रसंगेन च नैवं वक्तुमुचितमिति वाच्यम् । ईश्वरत्वेनाऽन्यथापि करण संभवात् । मर्यादा विपरीत स्वरूपत्वात् पुष्टिमार्गस्य न काचानात्रानुपपत्तिर्भावनीया । तस्या अत्र भूषणत्वात् । अंत एवैकेषामिति दुर्लभाधिकारः सूचितः । पूर्व के चार सूत्रों द्वारा, मर्यादामार्गीय भक्त का मुक्ति प्रतिबंध और उसका नाश मर्यादा से ही होता है, ऐसा निरूपण किया गया अब बिचारते हैं कि- पुष्टिमागोंय भक्त का प्रारब्ध बिना भोग के नाश होता है, या नहीं ? प्रारब्ध बिना भोग के नष्ट होता ही नहीं, अतः भोग के बिना पुष्टिमार्गीय का प्रारब्ध भी नष्ट नहीं हो सकता, इस सामान्य विचार पर निर्णय देते हैं कि एक श्रुति से तो ऐसा ज्ञात होता है कि पुष्टिमार्गीय भक्तों का प्रारब्ध और अप्रारब्ध दोनों ही बिना भोग के नष्ट हो जाता है। ज्ञान द्वारा उभय प्रकार के कर्मों का नाश बताने वाली श्रुति और अन्य श्रुतियों से उक्त कंथन की पुष्टि होती है, एक और श्रुति भी कहती है कि - "मुक्त जीव का धन पुत्र प्राप्त करते हैं पुण्य कर्मों का फल मित्र लोग पाते हैं, शत्रु लोग पाप का फल पाते हैं ।" जो श्र ुति ज्ञान और भोग से कर्मनाश का निरूपण करती है उससे और इस श्रुति के साथ जो विरोध है, उसके परिहार के लिये, विषयभेद मानना पड़ेगा। यह श्रुति, काम्य कर्म विषयक है, ऐसा नहीं कह सकते । " तदधिगम " आदि तेरहवें सूत्र में और "इनुरस्याप्येवम" आदि चौदहवें सूत्र के अवयव से
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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