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(: ५५८ ) तत्रैव लयः । पुनस्तदृर्शनानन्दानुभवार्थ भगवानेवकृपया पुनः पूर्वभावं संपादयतीति तस्माद्र पादुदयश्चतत्सर्व भगवदंगत्वे एवोपपद्यत इत्यपिहेत्वभिप्रेतोऽर्थोंज्ञेयः । न हि प्रतीकत्वं इदं सर्व संभवति, भक्तिमार्गीयत्वादस्यार्थस्येति भावः । अंगानां भगवत्स्वरूपात्मकत्वेनैक्यमितिज्ञापनायैकवचनम् । एतेन स्वरूपस्यव फलत्वमुक्तं भवतीति मुख्यः सिद्धान्तः सूचितो भवति ।
अन्यत्र "यह जो आदित्य के मध्य में मधु है वह देव है" इत्यादि कह कर दिगन्तर व्याप्त रश्मियों के मधुत्व का निरूपण करके 'उसमें जो पहिला अमृत है, देव गण न तो उसे खाते हैं, न पीते हैं, वे इसे देख कर हो तृप्त हो जाते हैं, उससे वसुगण अग्नि प्रधान होकर जीवन धारण करते हैं । वे देवगण इस रूप को लक्षित करके ही उदासीन हो जाते हैं और फिर उसी से उत्साहित होते हैं" इत्यादि पाठ है । इसमें केवल दर्शन मात्र से अन्य धर्म की निवृत्ति एक मात्र उसे ही परम पुरुषार्थ तथा अतिशय स्नेहज विगाढ भाव से उसी में लय बतलाया गया है उसके दर्शनानंद के अनुभव के लिये, भगवान हो कृपया पुनः पूर्व भाव का सम्पादन करते हैं, उसी रूप से ये सारा उदित होता है, सब कुछ भगवान का अंग है, इसी भाव को दिखलाया गया है। इन्हें प्रतीक मानने से सब कुछ नहीं, हो सकता ? भक्ति मार्गीय होने से ही उक्तभाव होता है। सारे अंग भगवान के ही हैं इस एकता के भाव की दृष्टि से एक वचन का प्रयोग किया गया है । भगवत्स्वरूप की प्राप्ति ही फल है, यही सिद्धान्त निश्-ि चत होता है । अर्थात् समस्त विश्व को भगवत्स्वरूप जानने की क्षमता ही फल है।
आसीनः संभवात् ।४।११७॥
पूर्व सूत्रण धर्ममात्रस्य फलवत्मुक्त्याऽधुनार्मिणः फलत्वं तत्साधनंचाहसंभवत्, उत्कटस्नेहात्मक साधनस्य संभवात् तदधीनः संस्तदग्र आसीनो भगवान भवति । एतेन भक्त वश्यतोक्ता ।
पूर्व सूत्र से धर्म मात्र की फलता बतलाकर इस सूत्र से धर्मी की फलता और उसकी प्राप्ति के साधन का उल्लेख कर रहे हैं-कहते हैं कि-उत्कट स्नेहात्मक साधन से ही स्नेहाधीन भगवान साधक के सामने उपस्थित हो जाते हैं। इससे भगवान की भक्तवश्यता बतलाई गई है ।
एवं बहिः प्राकट्यमुक्त्वाऽन्तरंतदाह