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________________ ( '५४८) नौम, प्रकृते स्वदृष्टद्वारकत्वात् सकृत्कृतेनैव अदृष्ट द्वारा फलसंपादन संभवादावृत्तिरप्रयोजका, इति प्राप्ते, उच्यते-आवृत्तिरेव श्रवणादीनां श्रुत्यभिमता । कुतः ? असकृदुपदेशात् । छान्दोग्ये श्वेतकेत्पाख्याने-"ऐतदात्म्यमिदं सर्वम् तत्सत्यं, स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो" इति वाक्येन जडजीवयोब्रह्मात्मत्वं 'नवकृत्व उमदिष्टवान् । तथा च सकृदुपदेशेनैव चेदर्थसिद्धिः स्यात्तदैकमेवार्थमेकस्मात् एकदैवा सकृन्तोपदिशेत्, प्रयोजनाभावात् ऐतेनावधातवदन्तः करणदोष निवर्त्तनं दृष्टद्वारमन्येषामुपदेशानां चरमस्य तस्य ज्ञान साधकत्वमिति मन्तव्यम् । "आत्मावाऽरे द्रष्टव्यं" इत्यादि वाक्य में विहित श्रवण आदि केवल एक बार ही कर्तव्य हैं अथवा बार-बार ? ऐसा संशय होता है । विचारने से तो एक बार करने की बात ही समझ में आती है, शास्त्र का तात्पर्य ऐसा ही समझ में आता है । जैसे कि-मुसल के पुनः पुनः अवघात से धान का छिलका 'अलग होकर निकल आता है वैसे ही श्रवण आदि के पुनः पुनः साधन से भग'वत्प्राप्ति होती हो ऐसा कुछ नहीं है । मुसल के अवघात से भूसी का अलग होकर चावल का निकलना तो प्रत्यक्ष बात है किन्तु भगवत्प्राप्ति कोई लौकिक प्रत्यक्ष का विषय तो है नहीं अतः श्रवणादि साधनों का एक बार कर्त्तव्य ही ‘फल साधन में पर्याप्त है, उनकी आवृत्ति का कोई प्रयोजन नहीं समझ में आता। 'इस मत पर सूत्रकार कहते हैं कि-श्रवण आदि की आवृत्ति ही श्रुति को अभिमत है । क्योंकि उपनिषदों में बार-बार उपदेश दिया गया है । छांदोग्य के श्वेतकेतु उपाख्यान में "यह सब कुछ आत्म्य है" वह सत्य है "वह जो आत्मा है वह तुम्ही हो" इत्यादि वाक्य में जड जीव की ब्रह्मात्मकता का पुनः नए ढंग से उपदेश दिया गया है, यदि एक बार के उपदेश से ही अर्थ सिद्धि संभव होती तो, ब्रह्म तत्त्व का उपदेश एक बार ही दिया गया होता बार-बार नए ढंग से उपदेश न देते, तात्त्विक उपदेश की पुनरावृत्ति ही, जानकारी की आवृत्ति को सिद्ध करती है। इनको बार-बार श्रवण करने से, मुसलावधात की तरह अन्तःकरण के दोष का आवरण हट जाता है फिर अन्यान्य उपदेश, - 'उस चरम तत्त्व के ज्ञान साधक होते हैं, ऐसा मानना चाहिए । अत्रैवहेत्वन्तरमाह-इसी पर दूसरा कारण उपस्थित करते हैंलिंगाच्च । ४।१।२॥ श्रुत्यनुभावपकत्वेन स्मृतिलिंगमित्युच्यते । सा च-"यथा यथाऽत्मा परिमृज्यतेऽसौमत्पुण्यगाथाश्रवणाभिधानः तथा तथा पश्याति तत्वसूक्ष्मं चक्षुर्यथे
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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