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________________ प्राप्ति होती है वहीं उनका पर्यवसान हो जाता है। भक्तो का पर्यवसान पुरुषोत्तम में होता है। ब्रह्म वेत्ता को जब भगबान वरण करते हैं तब उनमें भक्ति का उदय होता है, उस भक्ति के प्रचुर होने पर उस भक्त के हृदय में प्रकाशित होने की इच्छावाले भगवान अपने स्थान व्यापक वैकुण्ठ को उसके हृदय आकाश की गुहा में प्रकट कर देते हैं, उसे ही परम व्योम शब्द से श्रुति में कहा गया है । यह शुद्ध पुष्टि मार्ग पर चलने वालों की व्यवस्था है । जैसे कि भगवान स्वयं प्रकट होकर लीला करते हैं, वैसे ही अनुग्रह करके भक्त के अन्तःकरण में स्थित अपने को प्रकट करके उस स्नेहातिशय के वशीभूत होकर अपने लीलारस का अनुभव कराते हैं तब वह भक्त परब्रह्म पुरुषोत्तम के साथ समस्त कामनाओं को भोग करता है। चतुर्थ पाद, प्रथम अधिकरण उक्त प्रकरण में जो ब्रह्म के साथ समस्त कामनाओं को भोम करने की चर्चा है तो वह अतःकरण में स्थित होकर ही भोगता है अथवा पुनर्जन्म लेकर भोगता है। इस पर अन्तरास्थित पक्ष का निराकरण कर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि प्रभु के अति अनुग्रह से स्वरूपात्मक भजनानन्द भोग के लिए मुक्तों के बीच में उस भक्त का आविर्भाव होता है वहाँ वह उन भोगों को भोगता है। द्वितीय अधिकरण वह आविर्भूत जीव प्राकृत शरीर से भजनान्द का भोग करता है अथवा अप्राकृत शरीर से ? प्राकृत पक्ष का निरास कर अप्राकृत पक्ष को सिद्धान्ततः स्थिर करते हैं। सत्यज्ञानानन्दात्मक शरीर भगवान द्वारा ही प्रकट होता है ऐसी जैमिनि आचार्य को मान्यता है । अक्षर ब्रह्म का आयतन पुरुषोत्तम है अतः पुरुषोत्तमात्मक उस शरीर को मानना चाहिए प्राकृत नहीं अतः वह तदात्मक होने से चैतन्य शरीर है ऐसी औडुलोमि आचार्य की मान्यता है । भगवान बादरायण ये दोनों मत नहीं मानते वे कहते हैं कि-ब्रह्म संबंध योग्य शरीर नित्य हैं जिस जीव को जितना भगवदनुग्रह प्राप्त है तदनुरूप ही वह उस शरीर में प्रवेश कर भगवदैश्वर्य का भोग करता है ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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