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________________ ( ५.३१ ) " सतू पद सार्वदिक दर्शन की बात कहते हैं । इस प्रकार पुष्टिमार्गीय भगवद्भावापन्न मुक्ति में सायुज्य मोक्ष का नियम भंग हो जाता है । यच्चोत्तं साधनावस्थायां उत्तमावस्थारूपत्वं परं तदीयत्वस्यफलं मुक्तिरेवेतितत्राह — अतद्रूपेति । उक्त भगवदीयत्वं न साधन रूपं अपितु मुक्त - रपि फलरूपम् "मुक्तानां अपि सिद्धानां नारायणपरायणः सुदुर्लभं प्रशान्तात्मा" इति वाक्यात । " यदा सर्वेप्रमुच्यन्ते कामयेऽस्य हृदिस्थिता अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्मसमश्नुते" इति श्रुत्या अमृतस्य ब्रह्मस्वरूप भोग उच्यते । स च " यमेवैषवृणुते " इति श्रुतेर्भगवदीयत्व साध्य एवेति स्पष्टफलत्वमस्यातोऽतद्रूपत्वम, किंच - फलं हि साधनादुत्तमं भवति, भगवदीयत्वा-दुत्तमंस्यार्थस्याभावादपि न मुक्तिर्वक्त ुमुचिता । तदुत्त श्री भागवते पंचमस्कन्धे पूर्व भक्तिस्वरूपं निरूप्य तयैव परया निवृत्त्या ह्यपवर्गमात्यान्तिकं परमपुरुषार्थमपि स्वयमासादितं नो एवाद्रियन्ते भगवदीयत्वेनैव परिसमाप्त सर्वार्था इति । जो यह कहा कि - साधनावस्था में उत्तम अवस्था वाली भगवदीयता का फल भी मुक्ति ही हैं, उस पर सूत्र कार कहते हैं कि - वह भगवदीयता साधन रूप नहीं है, अपितु मुक्ति का भी वही फल है जैसा कि - "मुक्त सिद्धों के बीच में कोई एक ही नारायण परायण सुदर्लभ प्रशान्त आत्मा होता है ।" इत्यादि वाक्य से निश्चित होता है । " जिस समय अन्तःकरण की समस्त कामनांयें नष्ट हो जाती हैं, वह व्यक्ति अमृत हो जाता है । उसे उस स्थिति में ब्रह्मभाव प्राप्त हो जाता है । " इस श्रुति से, अमृत मुक्त व्यक्ति का ब्रह्मस्वरूप भोग बतलाया गया है । " जिसे वह चाहता है उसे वह वरण करता है" इत्यादि श्रुति, स्पष्ट रूप से भगवदीयता को ही साधन बतलाती है, इससे भगवदीयता का फलत्व निश्चित हो जाता है भगवदीय का सायुज्य रूप नहीं होता यह भी निश्चित होता है । फल साधना से उत्तम होता है, साधना यदि भगवदीय है तो वह स्वयं उत्तम है, यदि उसमें सायुज्य का, जिसे कि प्रायः लोग उत्तम कहते हैं, का अभाव भी हो तो भी उसे मुक्ति कहना ठीक नहीं ; ( अर्थात, भगवदीयता मुक्ति से बहुत बड़ी वस्तु है) जैसा कि – श्रीमद भागवत से पंचम स्कस्ध में, पहिले भक्ति के स्वरूप का निरूपण करके, उसी अपवर्ग और आत्यन्तिक परम पुरुषार्थ की स्वतः प्राप्ति बतलाकर, अपवर्ग और मोक्ष का विशेष आदर नहीं किया गया है, भगवदीयता में ही समस्त अर्थों की परि समाप्ति कर दी गयी है ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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