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________________ (५२ ) अनूचाना विद्वांसः प्रजां न कामयंते किं प्रजया करिष्यामो येषां नोऽयमात्मा'ऽयं लोक" इति ऋणापाकरण हेतुत्वेन लौकिकोत्कर्ष हेतुत्वेनापि प्रजाया 'अभीष्टत्वेऽपि तदुत्पादन व्यासंगेन भगवदानन्दानुभवेऽन्तरायो भविष्यतीतितद्दृष्ट्या तत्रापेक्षां दर्शयति । भगवद्धर्मों से आश्रम धर्म हीन हैं, ये कथन तो कम है अपितु सहीं तो ये है कि जिन लोगों की दृष्टि में पुरुषोत्तम धर्म ही महत्तम है, उनके लिए 'फलसिद्धि में, आश्रम धर्म व्यवधान रूप ही हैं। यहाँ पर अन्तरा शब्द व्यवधान वाची अव्यय है । "एतद् ह स्म वै" श्रुति में, ऋण से छूटने के लिए -तथा लौकिक उत्कर्ष के लिए संतान अभीष्ट है, किन्तु उससे भगवदानंदानुभव में व्यवधान होगा, इस दृष्टि, से सन्तान के प्रति उपेक्षा दिखलाई गई है। अपि स्मयते ।३।४।३६ ॥ अपि शब्देनाश्रमधर्माणां तथात्वं किमु वाच्यं यतो ज्ञान तत्साधन वैराग्या'दीनां अपि अन्तरायरूपत्वं स्मर्यते-"तस्मान्मद्भक्ति युक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः, न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह" इति भगवद् वाक्यम् । आश्रम धर्म ही भगवद् भजन के अन्तराय हों इतना ही नहीं अपितु ज्ञान और उसके साधन वैराग्य आदि भी अन्तराय रूप हैं ऐसा--"जो मेरे में अपने को समर्पित करने वाले मेरे भक्त हैं, उनके लिए ज्ञान और वैराग्य भी श्रेयस्कर नहीं होते'' इस भगवद् वाक्य में कहा गया है। विशेषानुग्रहश्च ।३।४।३७॥ स्मयंत इति पूर्वेण संबंधः । ज्ञानादेः सकाशाद् भक्तिमार्गे फलतोऽप्युत्कर्ष'माह-ज्ञानादि साधनवत्स्वनुग्रहो मुक्ति पर्यन्त एव । भक्तिमार्गे तु "अहं भक्त पराधीनो ह्यस्वतंत्र इव द्विज" इत्यादि वाक्ये विशेष रूपो मुक्तादिभ्योऽपि 'भक्तानां व्यावत को भगवदनुग्रहः स्मर्यत इत्यर्थः। अब बतलाते हैं कि-भक्तिमार्ग में, ज्ञान आदि से, विशेष उत्कर्ष होता है, ज्ञान आदि साधनों की तरह, प्रभु का अपना अनुग्रह भक्त के ऊपरे मुक्ति पर्यन्त रहता है । "अहं भक्त. पराधीनः" इत्यादि से निश्चित होता है किमुक्त जीवों से अधिक भक्तों पर भगवादनुग्रह होता है।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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