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________________ ( ५२०.) योऽकामो निष्काम आप्त काम आत्मकामो भवति, न तस्मात् प्राणा उत्क्रामंति अत्रैव समवनीयन्ते ब्रह्म व सन् ब्रह्मप्येति" इत्यादि । अत्र अथाकामयमानः कर्ता निरूप्यत इति शेषः । यः पुमान कर्मकृतावकामस्ततो निष्कामः सन्नात्मकामो निरुपधिस्नेहवान् प्रभौततो भगवत्प्राप्त्या आप्तकामो भवतीत्यर्थः । अत्र यथाकारी इत्यादिना कर्मकत रेवोपक्रमादथकामायमान इत्यनेनापि तथाभूतः स एवोच्यते । एवं सति सत्कर्मणि प्रवृत्यर्थ विविध फलानि स्वयमेवोक्त्या जनान् भ्रामितवानिति स्वोक्तकरणाच्चिरेण दयया निष्कामं करोति सकाम तथाऽपि क्रियमाणेन वैदिक कर्मणाऽनेकजन्मभिः संस्कारविशेष प्रचयेनापि तथा ।' कषाये पक्वेततो ज्ञानं प्रवर्तते "इत्यादि स्मृतिभ्यश्च ज्ञानोत्पत्तौ कर्मापेक्षाऽस्तीति । चकारेण पुष्टावंगीकृतस्य सर्वानपेक्षेति सा समुच्चीयते । अत एव "नायमात्मा" इत्यादि श्रुतिर्न विरुद्धयते । वाजसनेयी शाखा में उल्लेख भी है-"जैसा कर्म करता है, जैसा आचरण करता है वैसा ही होता है, साधुकर्म करने वाला साधु होता है, पाप करने वाला पापी होता है" इत्यादि उपक्रम करके "पुनः लोक से लौटकर इस लोक में कर्म करता है, वह सकाम और निष्काम कर्म में संलग्न होता है, जो अकाम, निष्काम, आप्तकाम आत्मकाम होता है, उसके प्राण उत्क्रमण नहीं करते इसी जगह लीन हो जाते हैं, वह ब्रह्म होकर ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है" इत्यादि । इसमें निष्कामकर्ता का निरूपण करते हुये प्रसंग को समाप्त किया गया है । जो मनुष्य कर्म करता हुआ भी अकाम है वही निष्काम हो जाता है वही आत्मकाम है, प्रभु में अहेतुक स्नेह करता हुआ भगवत् प्राप्ति कर लेता है, वह आप्तकाम हो जाता है । इस प्रसंग में यथाकारी इत्यादि से जिस कर्म करने का उपक्रम किया गया है, “अथाकामयमान्" से भी वैसे ही कर्म करने वाले का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार सत्कर्म में प्रवृत्त करने के लिए, अनेक प्रकार के फलों का स्वयं वर्णन करके मनुष्यों को भ्रमित करते हुए प्रभु अपने भक्त को कालान्तर में दया से निष्काम कर देते हैं,' सकामभक्त पर भी उनकी वैसा ही कृपा होती है। अनेक जन्मों के किये गए वैदिक कर्मों के आचरण से संस्का होने पर भी प्रभु कृपा प्राप्त होती है। "कषायेपक्वे ततो ज्ञानं प्रतते" इत्यादि स्मृतियों से भी ज्ञात होता है कि-ज्ञानोत्पत्ति में कर्म की अपेक्षा है। पुष्टि मार्ग में स्वीकृत भवन को सबंकी अपेक्षा होती है । अतः "नायमात्मा" पति से कोई विरुद्धतो नहीं होती।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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