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________________ (४१० ) . . तथा च भगवज्ञानस्येतरनिरपेक्षत्वेन स्वरूपोपकारित्वमस्यकर्मणो वाच्यम् । चोक्तम् --"दानब्रततपोहोमजपस्वाध्यायसंयमैः, श्रेयोभिर्विविधैश्चान्यैः: कृष्णे भक्ति हिं साध्यते'' इति। "एष नित्यो महिमा" इति श्रु तिरपि यज्ज्ञाने सति विहित निषिद्धकर्म फलसंबन्धः तद्वित् स्यादित्यनुक्त्वा तस्यैव पदविद् स्यादिति यदुक्तवतो तेन पदयोभक्तिमार्गरूपत्वात् तत्र च पदयोरेव सेव्यत्वेन मुख्यत्वात् तत् ज्ञानानुकूल प्रयत्नमेव पूर्व विधदते । तेन 'शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्षणशः स्मरंति नन्दन्ति तवेहितं जनाः, त एवं पश्यन्त्यचिरेणतावकं ! भव प्रवाहो परमं पदांबुजम्" इति बाक्याच्च वर्णाश्रमधर्मा आत्मधर्माश्च पदज्ञान साधनत्वेन कर्तव्या इति सिद्धम । तस्यैव, तच्छब्दस्य प्रसिद्धार्थकत्वा ल्लोकवेद प्रसिद्धस्य पुरुषोत्तमस्यैव तत्रापि, पदविदेव, दीनभावेन भक्तिमार्गीय ज्ञानवानेव स्यादेवेत्येवकारः सर्वत्रानुपयुज्यते । तथा सति भक्तौजातायां स्वत एव भगवज्ज्ञानं भवति ज्ञापयितु "तं विदित्वा" इति पश्यचादुक्तवतीतितदाशयो ज्ञायते । अतएव पूर्व कर्मनिरूपितम्, साधनत्वात् । भगवत् ज्ञान, इतरवस्तु की अपेक्षा नहीं रखता, उक्त कर्म मोक्ष का उपकारी हो सकता है जैसा कि भागवत का वाक्य भी है-"दान, ब्रत, तप, जप, होम, स्वाध्याय, संयम और भी अन्यान्य शुभ कर्म मोक्ष के उपयोगी हैं, कृष्ण तो भक्ति ही से साध्य हैं।" इत्यादि, "एष नित्यो महिमा" इत्यादि श्रति बतलाती है कि-ज्ञान में विहित निषिद्ध कर्म फल का सम्बन्ध नहीं रहता। "तद्वित् स्यात्" इत्यादि से उनके सम्बन्ध राहित्य को दिखला कर उसे ही "पदवित् स्यात्" से निश्चित करके, उन दोनों को भक्ति मार्गीय और सेव्य होने से ज्ञानानुकूल प्रयत्न. कहाँ है । वे भक्त भगवद् कथाओं को सुनते, भगवान के नामों का गान करते स्मरण करते हुये प्रसन्न होते हैं और वे शीघ्र ही संसार सागर से पार करने वाले आप के चरणाविन्दों की प्राप्ति कर लेते हैं।" इत्यादि वाक्य से, वर्णाश्रम धर्म और आत्मधर्म को, परम्पद ज्ञान के साधन रूप से कर्तव्य कहा गया है उक्त प्रसंग में प्रयुक्त तत् शब्द, लोक और वेद में पुरुषोत्तम के लिये ही प्रसिद्ध है "पदविदेव" में जो एवकार है. वह "दोन भाव से भक्तिमार्गीय ज्ञानवान के लिये ही विशिष्ट अर्थ का द्योतक हैं । भक्ति होने पर भगवद् ज्ञान स्वयं ही होता है इस बात को बतलाने के लिये बाद में "तं विदिवो इत्यादि पद कहा गया है । इस प्रकार साधन रूप से कम का पहिले ही निरूपण किया गया है। स्यादेतत्-भक्तिसाधनत्वमेव चेत् कर्मणः श्रतेरभिप्रेतं तदा भगवद्विदि
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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