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________________ : परामर्श जैमिनिरचोदना चापवदति हि ३।४।१५। . . .. .. ऊर्ध्वरेतस्सु च ज्ञानोक्तस्तस्य मुक्ति फलकत्वोक्तेः किम् प्रजया करिष्यामो येषां नोऽयमात्मायं लोक "इत्यादि श्रुतेश्च ब्रह्म प्राप्तावेव सर्वस्याः श्रुतेस्तात्पर्यम् इति सिद्धयति । तस्या एव सर्वक्लेशापायपूर्वकपरमानन्द रूपत्वान्न तु कर्मणि दुःखात्मक संसार हेतुत्वात्तस्य जीव श्रेयोनिमितमेव श्रति प्राकट्यात् अन्यथा निषेध विधिनस्यात् । उर्ध्वरेताओं के लिए जो ज्ञानोक्ति है वह मुक्तिफलक उक्ति है, "किम प्रजया करिष्यामो' इत्यादि श्रुति ब्रह्म प्राप्ति की ही बोधिका है ऐसी सभी श्रुतियों का यही तात्पर्य सिद्ध होता है। उर्ध्वरेतस आश्रमों में समस्त क्लेशों का निराकरण होकर परमानन्द की प्राप्ति होती है, जो कि संसार के हेतु दुःखात्मक कर्म में संभव नहीं है, जीव के कल्याण के निमित्त ही श्रुति में स्पष्ट रूप से उल्लेख है, अन्यथा निषेध विधि न होती। ___ तथा च कर्म विधिनाऽपि परम्परा मोक्षं एव फलत्वेन परामृश्यत् इति सिद्धम् । तं परामर्श स्वातंत्र्यवादी जैमिनिरपवदति बाधत इत्यर्थः। मोहक शास्त्र प्रवर्तकः स इतीश्वरमेव न मनुते यतो अतस्तप्राप्तिस्तस्य मते दुरापास्ता । कर्माऽनधिकारिणां अंधादीनां संन्यास विधि विषयत्वम् । अन्यथा “वीरहा वा. देवानां योऽग्निमुद्वासयत्" इतिश्र तिर्नस्यादतो "ब्रह्मचर्य समाप्य गृहोभवेत् गृहात वनी भूत्वा प्रब्रजेत् यदिवेदरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रब्रजेद् गृहाद् वनाद्वा" इति श्रुतेरप्यंगहीन एव स विषयो, यत आयुर्भागविभागेनाश्रमाणां विधानम् । तुरीये तस्मिन् देहेन्द्रियादि वैकल्यं नियमतः कर्मण्येव श्रुतेस्तात्पर्यम् । _वैसे ही कर्मविधि से भी, परम्परा मोक्ष का ही फलरूप से परामर्श किया गया है। उस परामर्श को कर्मस्वातंत्र्यवादी जैमिनि नहीं मानते। मोहशास्त्र के प्रवर्तक वे, ईश्वर तक को नहीं मानते फिर उसकी प्राप्ति की बात तो बहुत दूर है । वे कहते हैं कि जो अंधे लंगड़े लूले कर्म नहीं कर सकते, संन्यास उन्हीं के लिए है। ये बात न होती तो “वीरहा एव देवानां" इत्यादि श्रुति न होती "ब्रह्मचर्य को समाप्त कर गृही बनो, गृह से बन जाकर संन्यास लो, यदि कोई बिशेष परिस्थिति हो तो ब्रह्मचर्य से ही संन्यास लो, या गृह से भी लेलो, या बन जाकर भी ले सकते हो" ये श्रुति अंगहीन ब्यक्तियों को ओर ही संन्यास मार्ग का इंगन कर रही है। आयुभाग के विभागानुसार आश्रमों का विधान है। चौथी आयु में जब देह इन्द्रिय आदि क्षीण हो जावे तब सब कुछ नियमों
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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