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________________ ( ५७ ) चतुर्थ अधिकरण कुछ भक्तों को बहिराविर्भाव की अनुभूति होती है, और कुछ भक्तों को अन्तराविर्भाव की होती है इनमें तारतम्य भाव मानना चाहिए या नहीं ? इस पर पूर्व पक्ष कहता है कि यह तो भावभेद है अतः तारतम्य मानना चाहिए इसका निरास करते हुये कहते हैं कि-भगवत्स्वरूप में तारतम्य भाव नहीं हैं सब एक ही हैं। पंचम अधिकरण जिन भक्तों को अन्तः प्राकट्य की अनुभूति हो जाती है, और यदि उन्हे वाह्य प्राकट्य की भी अनुभूति हो जाय तो "मैं जिसकी पूर्व में अनुभूति कर चुका था उसकी वाह्यानुभूति भी कर रहा हूँ", ऐसी प्रतीति उस भक्त को होती है या नहीं है, इस पर निर्णय करते हैं कि भिन्न अनुभूति का प्रश्न ही नहीं है जब प्रभु एक ही है तो उनकी सर्वदा एक सी ही अनुभूति होगी अतः -भक्त को दोनों अवस्थाओं में समान प्रतीति होती है। अब विचार करते हैं कि प्राकट्यानुभूति में सायुज्य होता या नहीं ? जब भक्त को प्रभु के माथ बातचीत करने और चरणारविन्द के स्पर्श आदि करने का साक्षात् फल मिल जाता है, तो अदृष्ट सायुज्य की चर्चा ही क्या है। पष्ठ अधिकरण मर्यादा मार्गीय ज्ञानी भक्त को जब ज्ञानोदय हो जाता है उसके बाद उसकी मुक्ति, कर्म सापेक्षा होती है, या ज्ञान से ही हो जाती है ? कर्म सापेक्षामुक्ति मत का निराश कर ज्ञान से ही मुक्ति होने को सिद्धान्ततः स्वीकारते हैं। सप्तम अधिकरण पुष्टि भार्गीय भक्त का विना भोगे प्रारब्ध कार्य का नाश होता है या नहीं ? नहीं होता इस पूर्वपक्ष का निराकरण कर सिद्धान्त निश्चित करते हैं कि हो जाता है। भाष्यकार 'भोगेनत्वितरे क्षपयित्वाथ सम्पद्यत 'इस सूत्र का अर्थ करते हैं कि उपासक इतर अर्थात् अग्रे प्राप्य, अलौकिक देह से भिन्न स्थूल लिंग शरीर को छोड़कर भगवान की लीला की उपयोगी देह को प्राप्त कर भगवान के समान योग प्राप्त करता है।'
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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