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________________ स्तस्य कर्तृत्वेन तथात्वमनुपन्नमतो जीवात्मन एव तथात्वं न तु परस्य । न चैतयोस्तिवाऽभेदान्नैवमिति वाच्यम् । वास्तवाभेदाज्जी वेऽप्युक्त श्रुतिभ्यः तथात्वस्य सुवचत्वात् । वास्तवार्भदस्य पूर्वमेव निरस्तत्वात्तमादाय ये पूर्व 'पक्षास्ते पूर्वपक्षा एवेत्यलमुक्त्वा "न कर्मणा न प्रजयाधनेन त्यागेनेके अमृतत्वमानशुः परेणनाकं निहितं गुहायां विभ्राजते यत् यतयोविशन्ति" इति श्र त्या कर्म प्रजाधनोंक्षाप्राप्तिमुक्त्वा त्यागेन तत्प्राप्तिरुच्यते । त्याग बिषय स्यान्यस्यानुक्त्या सान्निध्यात् कर्मादीनीनामेव त्यागोऽभिप्रेतः । __ ऐसा भी नहीं कह सकते कि–पहिले इज्य ज्ञान सामान्य था, यज्ञ से विशेष ज्ञान हो जाने पर पुनः यज्ञ करने से उस यज्ञ का पूर्ण कम फल होता है । "उसे जान कर ही मुनि होता है" इत्यादि श्र ति, प्रभु ज्ञान को, गार्हस्थ्य से विरोधी बतलाती है, गृहस्थ में ये असम्भव है । जो श्रुति, साधु असाधु कम फल सम्बन्ध रहित कर्तृत्व से उस ज्ञान स्थिति की असंभावना बतलाती है, वह जीव की ही परिस्थिति का उल्लेख है, परमात्मा का नहीं । जीवात्मा, परमात्मा में वास्तिविक अभेद नहीं है, ऐसा भी नहीं कह सकते । श्रुतियों से जीव का वास्तविक अभेद बतलाया गया है, अतः उसकी ज्ञानपूर्ण स्थिति भी सही है । वास्तविक अभेद का निराकरण पहिले ही कर चुके, इस बात को लेकर कोई पूर्वपक्ष सामने आवे तो वह पूर्वपक्ष ही है उनसे कुछ नहीं कहेंगे । “कर्म, प्रजा या धन से न मिलकर एक मात्र त्याग से ही अमृतत्व मिलता है," इत्यादि श्रुति, कर्म प्रजा और धन से मोक्ष की अप्राप्ति बतलाकर त्याग से ही उसकी प्राप्ति बत'लाती है। त्याग विषय कर्म ही है उसके अतिरिक्त किसी अन्य के त्याग को चर्चा नहीं मिलती, कर्म का त्याग ही उक्त श्रुति में अभिप्रेत है। · तथा च मुक्तोपसृप्यत्वात् भगवत उक्त साधनेन मुक्ताः सन्तो नाकं परेण विद्यमानमपि भक्त्या गुहायां विभाजते "यद् यस्मात् परं नापरमस्तीत्यादिनोपक्रान्तत्वात् पुरुषोत्तम स्वरूपं “यतयो विरह भावेन तद्विना स्थातुमशक्तास्तत् प्राप्त्यर्थं यतमाना विशन्ति" इति भक्तिमार्गीयाणां फलमुक्तम् । अग्ने 'बेदांत विज्ञाने" इति ऋचा ज्ञानमार्गीयाणां फलमुक्तम् । अन्यथा पौनरुक्त्यं स्यात् । एवं कर्मज्ञानाभ्यामधिकोभक्तिमार्गस्तत्प्राप्यः पुरुषोत्तमश्च श्रुतावुपदिश्यत इति तदेक प्रमाणवादिनो बादरायणस्य मतमप्येयं जैमिनिमतादधिकमित्यर्थः । एवं श्रुत्या परमतं निरस्य शिष्यविश्वासार्थ स्वानुभवमपि प्रमाणयति । तद् दर्शनात् इति । उक्ताधिक्यवत्वेनैव भगवतो भक्ति मार्गस्य चानुभवादित्यर्थः । श्रु त्योऽधिकमात्मानन्द दर्शयन्ती इति न व्याख्यानम् । उप- .
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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