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________________ ( ४७४ ) स्मकव्यायो वैकुण्ठ ही है, वहीं भगवान का आविर्भाव होता है, ज्ञानियों को गुहाओं में जो परम व्योम है वह व्यतिरेक मात्र है, उसमें हेतुमद् भाव का अभाव है। "यमेवैषवृणते" श्रुति में, स्पष्ट रूप से, वरण के अभाव में भगवद्भाव को असंभावना बतलाई गई है, ज्ञानियों का वरण प्रभु नहीं करते अतः उनमें भगवद्विषयक भाव नहीं होता। ननु ज्ञान विषयत्ववदाविर्भावोऽप्यस्तु । किंच तदतिरिक्तमाविर्भावमपि न 'पश्याम इत्याशंकायामाह-'नतूपलब्धिवद' इति-उपलब्धिर्ज्ञानं, तद्वद् गुहायामाविर्भावोनभवतीत्यर्थः । यस्मै भक्ताय यल्लीला विशिष्टं स्वरूपमनुभावयिता प्रभुर्भवति तद् गुहायां तल्लीलाश्रयभूतमक्षरस्वरूपं वैकुण्ठलोकवदाविर्भावयति इति नोक्तशंकालेशोऽपि यत्र पुरुषोत्तमस्य चाक्ष षत्वं तत्र ततोऽधःकक्षस्य तस्य तथात्वे का शंका नाम । एतदुपपादितं पूर्वम्, विद्वन्मण्डने च । ज्ञानमार्गीय कहते हैं कि-ज्ञान विषयत्व को तरह आविर्भाव भी होता है, उसके अतिरिक्त तो आविर्भाव कहीं देखा भी नहीं जाता । इस पर सूत्रकार कहते हैं-'न तूपलब्धिवत्' अर्थात् ज्ञानवान की गुहा में आविर्भाव नहीं होता। 'प्रभु, जिस भक्त को जिस लीला विशेष के स्वरूप का अनुभव कराना चाहते हैं, 'उसी लोला के आश्रयभूत अक्षर स्वरूप वैकुण्ठ लोक की तरह, उस भक्त की 'गुहा में प्रकट करते हैं अतः उस शंका की गुन्जायश ही नहीं है । जहाँ पुरुषोत्तम स्वरूप का साक्षात्कार होता है, वहाँ उसके नीचे के कक्ष में उसके अनुसार 'प्राप्ति की बात में शंका करने की क्या आवश्यकता है ? अर्थात् जिन्हें पुरुषोत्तम का साक्षात्कार होता है उन्हे तो नीचे के कक्ष के अक्षर आदि का साक्षात्कार हो ही चुका । उसका उपपादन हम पहिले भी कर चुके हैं, विद्वन्मन्डन् ग्रन्थ में भी इस पर विचार किया है। ननु ज्ञानिज्ञान विषय भक्त गुहाविर्भूताक्षरयोर्भेदोऽस्ति न वा ? नाद्यः 'मानाभावादेकत्वेनैवसर्वत्रोक्तेः । न द्वितीयः निरवयवस्य क्वचिल्लोकरूपत्वात्तद् रूपत्वामामेकत्वानुपत्तेरितिचेन्म वम लोकरूपत्वस्य पश्चाद्भावित्वे होयमनुप'पत्तिनत्वेवं, किन्त्वक्षरस्वरूपमेव तथेति श्रु तिराह "अम्भस्यपारे भुवनस्य मध्य" इत्युपक्रम्य "तदेव भूतं तदुभव्य मा इदं तदक्षरे परमेव्योमन्" एतदग्रे च "यमन्तः समुद्र कवयो वयन्ति यदक्षरे परमे प्रजा" इत्यादि रूपा । स्मृतिऽपि"परस्तस्मात्त भावोऽन्योऽव्यक्तो व्यक्तात् सनातनः" यः स सर्वेषुभूतेषुनश्यत्सु न
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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