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________________ ( ४५३ ) यत् फलं वेद मर्यादारक्षा लोकसंग्रहश्चतत फलमित्यर्थः । हिशब्देन "सक्ताः कर्मण्यविद्वासो यथा कुर्ववन्तिभारत, कुर्याद विद्वान तथाऽसक्तश्चिकीर्ष लोकि संग्रहम्" इति भगवद्वाक्य रूपोपपत्तिः सूचितो द्वितीयस्य मध्यमाधिकारात् काम संगादिजनितचित्तमालिन्येन भगवत् सानिध्ये प्रतिबंधः स्यात् तन्निवृत्तिस्तत् कृतकर्मणः फलमित्यर्थः । अथवा पूर्व सूत्राभ्यां भगवद्धर्म कृतेरावश्कत्वमुक्तम् । सर्वात्मभाववतो-" न ज्ञानं न च वैराग्यं प्राप्तः श्रेयो भवेदिह" इति भगवद्वचनात् विधेयाभावादसंभवाच्च कर्मज्ञानयोविहित भक्तेश्च करणं न संभवतीतितस्य किंफलमित्याकांक्षापूरणाय तदनुवदति । तन्निर्धारणेत्यादिनातस्मिन धर्मण्येव, न तु धर्मेण्वपि दृष्टि: यस्य स तथा । दृष्टि पदेन ज्ञानमात्रमुच्यते । तेन अन्यविषयक दर्शन श्रवणादि ज्ञानाभाव उक्तो भवति । एतादृशस्य प्रभुसंगमात्रमपेक्षितम् । तत्र भगवदुक्तस्वसंगमावधिकस्य भक्तस्यसंगमसमय निर्धारो भवति । अतादृशस्य तस्य सनेति तन्निर्भीरणानियमः । एतेन फल प्राप्तेः प्रागवस्थोक्ता भवति । फलस्वरूपमाह-पृथक फलमिति । अस्यानिर्वचनीयत्वात्अनुभववैकवेद्यत्वात् मोक्षान्तं यत्फलंशास्त्र उक्तं तम्माद, भिन्नमित्युक्तम् । अन्यत्र हि वर्माणां साधनत्वं यत्र फलमेव साधनं तत्कलस्यानिर्वाच्यता मुक्तेवेति हि शब्देनाह । ज्ञानमोक्षादिना तद्भाबाऽप्रतिबंधश्चफलम् इत्यर्थः । प्रासंगिकमेतत् सूत्रम् । ___ दोनों प्रकार के कर्मकर्ताओं के फल आदि के आशय से सूत्रकार कहते हैं-तद् दृष्टः अर्थात भगवदिच्छा ही दृष्टि अर्थात् ज्ञान है जिनका । ऐसा फल जीवकृत कर्मफल से पृथक ईश्वरकृत कर्म, वेद मर्यादा की रक्षा और लोक संग्रह, संबंधी फल है। "हे भारत ! जैसे कि-संभारीजीव कर्म में प्रवृत्त होते हैं, वैसे ही भगवद्भक्त भी लोक संग्रह के लिए कर्म करते हैं" इत्यादि भगवद्वाक्य से उक्त स्वरूप का निर्णय होता है। जो लोग ईश्वरेच्छा मान कर कर्म नहीं करते उनको मध्यम अधिकारी कहा गया है, उनका चित्त कामासक्ति आदि से मलिन रहता है अतः उन्हें भगवद् सानिध्य नहीं प्राप्त हो पाता, उस आसक्ति से निवृत्त हो जाना हो उनके कर्माचरण का फल है । [अर्थात संसारोजीव आसक्त होकर स्वभाव से वर्णाश्रम धर्म का आचरण करते और भगवद्भक्त लोक संग्रह की दृष्टि से निष्काम भाव से आचरण करते हैं।] ___ अथवा ऐसा भी मानें तो ठीक होगा कि पूर्व के दो सूत्रों से भगवद्धर्म पालन करने वालों के लिए वर्णाश्रम धर्म आवश्यक कहा गया है । जिन्होंने
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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