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________________ ( ४५४ ) इत्युक्तं भवति । अतएव श्रीमद्भागवतेऽप्युक्तम् ऋषयोऽपिदेवयुष्मत् प्रसंगविमुखा, इह संचरति संसरन्तीति वा । अन्वये निदर्शनं ये इत् ईश्वरत्वेन तत्पूर्वोक्तं परं ब्रह्मविदुस्त इमे भक्ताः सर्वापेक्षया सम्यक् प्रकारेण भगवन्निकटे श्री गोकुल कुण्ठादिष्वासत् इति । तेनाऽन्येषां सम्यगऽसत्वमर्थाक्षिप्तं भवति पुरः स्थितार्थवाचीदं शब्दप्रयोगेण चान्येषामसन्तुल्यत्वं श्रुतेरभिमतं इति ज्ञायते । ऋक्शाखयामपि "तमुस्तोतारः पूर्व्यं यथाविद्ऋतस्य गर्भं जनुषां पिपत्तनि, आस्य जनन्तोनाम चिद् विविक्तन महस्ते विष्णोसुर्मात भजामह " इत्यादि ऋगभिरन्येभ्यो धर्मेभ्यः सकाशात् भगवद्धर्मेष्वादरः श्रयते इति तेषाम् अलोप एवेत्यर्थः । एतेनाकरणे प्रत्यवायश्रवणादित्यादियदुक्तं तदापि प्रत्युक्तं वेदितव्यम् । करणेऽपि वैयध्यात्तदपरिहारात् । एवं सति यदकरणे प्रत्यवायकथनं तेन तस्मादवकाशं प्राप्य गौणकालेऽप्यकरणे तथेति तस्याशयः इति ज्ञायते । उक्त मत पर सिद्धान्त रूप से "आदरात्" इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं, तैत्तरीयक में ब्रह्मयज्ञ के प्रकरण में " ओमितिप्रतिपद्यत एतद् वै' इत्यादि पाठ आता है, उक्त ऋचा ऋग्वेदीय है जो कि वर्णात्मक मात्र है, यदि परमव्योमात्मक अक्षर ब्रह्म ओंकार में वर्तमान लोक वेद प्रसिद्ध परब्रह्म को जो नहीं जानता उसे केवल ऋचा पाठ से प्राप्त हो सकता है, उस परब्रह्म ज्ञान के बिना वेदाध्ययन निष्फल है, यही उक्त तैत्तरीक वाक्य का तात्पर्य है इस प्रकार उसमें कहा हुआ कर्म भी उसी प्रकार बिना परब्रह्म ज्ञान के निरर्थक सिद्ध होता है । इससे यह निश्चित होता है कि- " भक्या मामभिजानाति" इस वाक्य से, एक मात्र भक्ति से ही ब्रह्मस्वरूप ज्ञान होता है, ऐसा निर्णय होता है अतः भक्त होकर जो पुरुषोत्तम को जानते हैं वेदाध्ययन आदि. उन्हीं के लिये फलप्रद है अन्यों के लिए नहीं ? ऐसा ही श्रीमद्भागबत में भी: कहा गया है -- "हे देव : आपकी भक्ति से बिमुख ऋषि भी भ्रमण करते हैं " इत्यादि ! जो ईश्वर रूप से परब्रह्म को जानते वे भक्त औरों से श्र ेष्ठ. हैं वे ही गोकुल वैकुण्ठ आदि में भगवान का सानिध्य प्राप्त करते है । प्रत्यक्ष स्थिति सूचक अर्थ वाले इदं शब्द के प्रयोग से अन्यों की असमानता का भाव निकलता है, वही श्रुति का अभिमत ज्ञात होता है । इसी प्रकार ऋग्वेदीय. शाखा की - " तुमस्तोतारः पूर्व्यं" इत्यादि ऋचा से, अन्य धर्मों से भगवद् धर्मः का आदर दिखलाया गया है । इससे भगवद्धर्म की ही मुख्य रूप से पालन करने की बात निश्चित होतो है । वर्णाश्रम धर्मं के न करने से प्रत्यवाय की बात
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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