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________________ ( ४३७ ) श्रुत्यन्तरेषु "तमेवविदित्वाऽतिमृत्युमेनि", नान्यः पन्या विद्यते अयनाय "ज्ञानादेवतुकैवल्यम्", तरतिशोकमात्मवित्, "ब्रह्म वेद ब्रह्मव भवति", इत्यादिषु ज्ञानस्यैव मुक्तिसाधनत्वमुच्यते । श्रुतित्वाविशेषादुभयोस्तथात्वे कारण वैजात्ये कार्यवैजात्यस्यावश्यकत्वान्मुला च तदसंभवात् 'भक्त्या मामभिजानाति'' इति वाक्याद् भक्ती ज्ञानस्यापि संभवात् ज्ञानेनैव मुक्तिरिति पूर्वपक्षे, ज्ञानसाधनत्व निरूपक श्रुति तात्पर्य निरूपयन् पुरुषोत्तम प्राप्नेरेव मुकिनपद वाच्यत्वात्तद्भजनस्यैव तत्प्रापकत्वमिति हृदिकृत्वाह-''अक्षरधियाम्" इत्यादि । तुशब्दः पूर्वपक्ष निरासे । वाजसनेयके श्रूयते--''एतद् वै तदक्षरं गागि ब्राह्मणा अभिवदंति अस्थूलम्' इत्यादि । तथाथर्वणे च-"अथपरा यया तदक्षरमधिगम्यते' इति तन ज्ञानमार्गेऽक्षरविषयकाण्येव ज्ञानानि निरूप्यन्ते, पुरुषोत्तम विषयकाणि नेति निश्चीयते । "ब्रह्मनिदाप्नोति परम्" इति श्र तावक्षर ब्रह्मविदोऽक्षरात् परस्य प्राप्तिरुच्यते । “अक्षरादपि चोत्तमः” इति भगवद् वाक्याच्चाक्षरातीतः पुरुषोत्तमः। "भक्त्यामामभिजानाति" इति वाक्ये "माम्" इति पदात् पुरुषोत्तम विषयकं ज्ञानमुच्यते, न त्वक्षरविषयकम् ।। उक्त अथर्वणोपनिषद् वाक्य से भगवद् धर्मों की मुक्ति साधनता बतलाई गई । अन्यान्य-"उसे जानकर मृत्यु का अतिक्रमण करता है । ज्ञान के अतिरिक्त, उसे जानने का कोई दूसरा मार्ग नहीं है, वह एकमात्र ज्ञान से ही प्राप्य है । आत्म विद ही शोक से मुक्त होता है, ब्रह्म को जानकर ब्रह्म ही हो जाता है", इत्यादि श्र तियों में ज्ञान को ही मुक्ति का साधन बतलाया गया है। दोनों ही प्रकार की श्र तियाँ समान हैं, दोनों में कोई विशेषता तो है नहीं दोनों से ही मुक्त होने की बात कही गई है, दोनों को ही कारण मानने से एक बात उठती है कि-मुक्ति रूपी कार्य किसके अनुरूप है, कारण और कार्य के प्रकार में तो भेद हो नहीं सकता, ऐसा होने से तो मुक्ति संभव नहीं है । "भक्ति से मुझे जानता है" इस वाक्य से ज्ञात होता है कि - भक्ति से ज्ञान होता है, उस ज्ञान से ही मुक्ति होती होगी, ऐसा मानने से उक्त शंका का समाधान हो जाता है। इस पर ज्ञान साधनता को निरूपक श्रुति के तात्पर्य का निरूपण करने के लिए, पुरुषोत्तम प्राप्ति ही मुक्ति है जो कि भजन से ही प्राप्त होती है, इस बात को विचार कर सूत्रकार "अक्षरधियाम्' इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं । सूत्र का तु. शब्द पूर्वपक्ष का निरास करता है । वाजसनेयक का पाठ है कि-"एतद् वैतदक्षरं" इत्यादि तथा अथर्वण का पाठ है-"अथ परा मया तदक्षरं" इत्यादि, इन दोनों में ज्ञानमार्ग से अक्षर प्राप्ति की बात कही गई है, पुरुषोत्तम प्राप्ति
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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