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निर्णयः संपद्यते । “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्" इति भगवद् वाक्याच्च । अत एव रहस्य भजनं लक्ष्यमुक्तम् ।
सब जगह मुक्ति को ही फलरूप से बतलाया गया है, जो कि ठीक ही है, क्योंकि सृष्टि दुःखात्मक है, उससे सभी छूटना चाहते हैं । पुष्टिमार्गीय भक्तों को उसकी भी अपेक्षा नहीं होती । अथर्वणोपनिषद् में अष्टादशाक्षर मंत्र के स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखते हैं- "इस रीति से जो परब्रह्म को धारण करता है"" इत्यादि के अन्त में " वह अमृत होता है" इसके बाद प्रश्न हुआ कि भगवान का रूप कैसा है ? उनके नामामृत का रसास्वादन कैसे होता है ? उनका भजन कैसे होता है ?" इसका उत्तर देते हैं- "उनकी भक्ति ही भजन है, इस लोक तथा परलोक के समस्त भोगों की कामना का सर्वधा त्याग करके एकमात्र श्रीकृष्ण में हो इन्द्रियों सहित मन को लगा देना हो नैष्कर्म्यं है ।" इस प्रसंग में विचार किया गया है कि मंत्रावृत्ति और मंत्र के अधिष्ठातृ देवता के रूप के ध्यान से अमृतत्व प्राप्ति होती है । फल की आकांक्षा से रहित भगवान में आत्मभाव का चिन्तन हा भजन का स्वरूप है । फलाकांक्षा रहित भजन के अन्त में मुक्ति हो होगी ये नहीं कह सकते । "उस परमात्मा को जिस भाव से उपासना करता है वैसा ही होकर उसे प्राप्त करता है" इस श्रुति से मुक्ति साधन रूप से जानकर भजन करने वाले को वैसी ही प्राप्ति होगी । स्वरूप को ही स्वतन्त्र पुरुषार्थ मानकर जो भजन करता है उसे स्वरूप प्राप्ति होती है, यही उक्त वाक्य में निर्णय किया गया है । " जो मुझे जिस भाव से भजता है,. मैं उसे उसी भाव से भजता हूँ" इस भगवद् वाक्य से भी उक्त बात की पुष्टि होती है । एकमात्र भजन को ही लक्ष्य बतलाया गया है।
तथा च श्रौतत्व भगवत्संबंधित्वयोरविशेषात् "कत मोगरीयान् ?" इति संशये गुढाभिसंधिः पठति । मुमुक्षोः सकाशादुरहस्यभजनकत्तैवोपपन्नः । उपपत्ति युक्तः । तमेवोद्घाटयति- 'तल्लक्षणार्थोपलब्धेः इति । तल्लक्षणो भगवत्स्वरूपात्मकोयोऽर्थः । स्वतंत्र पुरुषार्थं रूपस्तदुपलब्धेः । स्वाधीनत्वेनतत्प्राप्तेरित्यर्थः । यद्यपि पुरुषोत्तमे प्रवेशे तदानन्दानुभवो भवति तथापि न प्रभोस्वदधीनत्वम् । भक्तितिरोभावात्, प्रत्युत वैपरीत्यम् । भजनानंदस्य तताधिक्यंतु " मुक्तिं ददाति कर्हिचित् स्म न भक्तियोगम्” – दीयमानं न गृहह्णन्ति विना मत्सेवनंजनाः- " नारायणपरा " इत्युपक्रम्य " स्वर्गापवर्ग नरकेष्वपि तुल्यार्थं दर्शिनः " इत्यादि वाक्यैरध्यवसीयेत । अतएव सामीप्यवाच्युपसर्ग उक्तः । तेन दासीत्वेन दासत्वेन लोलायां सुहृत्वेन प्रभुनिकटे स्थितिरुक्ता भवति ।