SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 511
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४२८ ) पुष्टिमार्गे अंगीकृतेस्त्वत्यनुग्रह साध्यत्वात् तत्र च पापादेरप्रतिबंधकत्वाच्छवणादि रूपा प्रेमरूपा च युगपत् पौर्वापर्येण वा, वैपरीत्येन वा भवत्येव । अत्र श्रवणादिकमपि फलरूपमेव । स्नेहेनैव क्रियमाणत्वान्नविधिविषयः । न हि अविद्यादि मुक्तत्यन्तरूपभजनानन्दान्तराय रूपानंकषाविरल विविधमहातरु गहनानां दहने लोलुपस्याऽनुग्रहानलस्य तदान्तरालिकपापतूलं प्रतिबन्धकमिति वक्तुं शक्यम् । तदुक्तं-श्रीभागवते-"स्वपापमूलं भजतः प्रियस्य त्यक्तान्यभावस्य हरिः परेशः, विकर्म यच्चोत्पतितं कथंचिद् दुनोति सर्व हृदि सन्निविष्टम्" इति। विकर्म प्राक्तनं तद् दुःखदमिति, स्वयं च हरित्वेन दुःखहर्तेति धुनोति । उक्त विशेषण विशिष्टस्य स्वतो विकर्मकृत्यसंभवात् सांसर्गिकं मत्तो भूतं, नतु मयाकृतं इतिवद् वा यत् कृतं विकर्म तत् कथंचिदुत्पतितमित्युच्यते । त्यक्तान्यभावत्वेन भगवत्सेवाव्यासंगेनेन्द्रद्युम्नाख्य पाण्ड्यराजवन्महदागमनाद्यज्ञानं वा वक्ता उक्तरूपे भक्ते विकर्मोक्तावरुचिज्ञापनाय वा कथंचिदित्युक्तवान् तेन तर्कितं विकर्मात्राभिप्रेतमिति ज्ञायते । एतादृशस्यापि यदि विकर्म भवेत् तदा तन्निवृत्यर्थ न तेनान्यत् कर्त्तव्यम् । भगवान् एव हृदिनिविष्टस्तद् धुनोति यत् इति । कदाचित् स्वभक्ति वलस्फूया सदोपमपि जनं कृतार्थी करिष्यामीत्यंगी कुर्याच्चेद्भक्तस्तदैव हृदिस्थैव तत्संसर्गजं दोपमस्यैतदंगीकारेण तद् दोपमपि धुनोतीति सर्व पदेनोच्यते । चिरकालभोग्यमपि तत्क्षणेनैव नाशयति । तन्नाशने कालादेरप्रतिबंधकत्वामित्यपि ज्ञापयितु परस्य कालादेरीशत्वमुक्तम् । अत्र भजनादि हृन्निवेशान्तानां स्पष्ट एव विकर्मणि सत्यपि संभव इति । पुष्टिमार्ग में अंगीकृत जोव भगवान के अत्यनुग्रह से अनुग्रहोत होते हैं, उनके लिए पाप आदि का कोई प्रतिबन्ध नहीं रहता, उनमें श्रवण आदिरूप। और प्रेमरूपा भक्ति कभी एक साथ, कभी आगे पीछे, कभी पहिले प्रेमरूपा और बाद में श्रवणादिरूपा भक्ति होती है । इस मार्ग में श्रवण आदि भी फलरूप होते हैं । क्योंकि ये स्नेहपूर्वक किए जाते हैं, इसलिए ये विधि के विषय नहीं होते । ये नहीं कह सकते कि-अविद्या आदि से मुक्त भजनानंद के, अन्तराय पापों के बन को, दहन करने वाले भगवदनुग्रह रूप अनल के बीच में, पापतूल प्रतिबन्धक हो सकता है । (अर्थात् जो प्रभुकृपा पाप के बड़े-बड़े गहन बनों को भस्म कर सकती है पापतूल उससे कैसे बच सकते हैं ?) वैसा ही श्रीमद्भागवत में कहा भी है-"अपने चरण कमल के भजन करने वाले प्रिय भक्त से जो विकर्म हो जाते हैं, उन्हें. प्रभु हृदय में प्रवेश कर नष्ट कर देते हैं।" वकर्म, प्राक्तन कर्म स्वरूप होते हैं जो कि दुःखदायी होते हैं, स्वयं हरि दुःखहत्ता
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy