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________________ ( ४१४ ) यत् कल्याणं वदति तदात्मने ते बिदुरनेन वैन उद्गात्रात्येश्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यत् स यः स पाप्मा, यदेवेदमप्रतिरूपंवदति स एवपाप्मा" इति । एवमेव प्राणचक्षुः श्रोत्र प्रभृतिषु पापवेधमुक्तवोच्यते-“अथैनमासन्यं प्राणमूचुस्त्वं न उद्गायेति तथेतितेभ्य एष प्राणउद्गायत्त विदुरनैन वै न उद्गात्रात्येध्यन्तीनि तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यत् स यथास्मानम् भृत्वा लोष्ठो विध्वंसेतैर्दै हवं विध्वंसमाना विष्वंचो विनेशुरिति” । छांदोग्येऽपि प्राणादिष्वेवमेव पाप्मवेधमुक्तत्वाऽसन्येन तथेत्युच्यते एतावान् परं विशेषो वाजसनेयिनां गानकर्तृत्वं, सामगानामुद्गीथत्वेनोपास्यत्वमुच्यते वाक प्राणादीनामिति । अत्र देह संबंधित्वगानकर्तृ योरूपास्यत्वस्यचाऽविशेषेऽपिवागादिषु पाप्मवेधआसन्य प्राणे कुतो नेति ? भवति जिज्ञासा । बाजसनेयि को एक शाखा में "द्वया ह प्रजापत्या" इत्यादि से देव दानवों को पारस्पारिक स्पर्धा का उल्लेख करते हुये कहते हैं "देवताओं ने कहाहम यज्ञ में उद्गीय द्वारा असुरों का अतिक्रमण करें, 'उन्होंने वाक् से कहातुम हमारे लिये उद्गान करों' वाक् बहुत अच्छा 'कह कर उनके लिए उद्गान किया' उसमें जो वाणी का योग था उसे देवताओं के लिये आगान किया और जो शुभ भाषण करती थी, उसे अपने लिये गाया । तब असुरों ने जाना कि इस उद्गाता के द्वारा देवगण हमारा अतिक्रमण करेंगे, अतः उन लोगों ने उसके पास जाकर उसे पाप से विद्ध कर दिया । यह वाणी जो अनुचित भाषण करती है वही पाप है।" इसी प्रकार प्राण चक्षु श्रोत्र आदि के पाप वेध की बात कह कर कहते हैं-"फिर अपने मुख में रहने वाले प्राण से कहा-"तुम हमारे लिये उदगान करो 'बहुत अच्छा' कह कर प्राण ने उनके लिए उद्गान किया, असुरों ने उसके पास जा कर उसे पापविद्ध करना चाहा किन्तु जैसे पत्थर से टकरा कर मिट्टी का ढेला नष्ट हो जाता है, वैसे ही वे विध्वस्त होकर अनेक प्रकार से नष्ट हो गये।" इत्यादि, छांदोग्योपनिषद् में भी इसी प्रकार प्राण आदि के पापवेध की बात बताकर, मुखस्थ प्राण की बात भी वैसी ही कही गई हैं। इसमें वाजसनेयि के उद्गाताओं से एक विशेषता है कि इसमें सामगान को उद्गीय होने के नाते उपास्य कहा गया है । जिज्ञासा होती है कि-बाग आदि का देह संबंध, उद्गान शक्ति उपास्यता आदि सब कुछ प्राण के समान है किन्तु वे पापविद्ध हुये और मुख्यस्थ प्राण पापविद्ध नहीं हुआ, ऐसा क्यों? नचासन्योपासनाया विधेयत्वात्तत् स्तुत्यर्थमन्येषु पापमवेध उच्यतेऽस्मिन्ने तिवाच्यम् । नहि प्रयोजना, असन्तमप्यर्थ बोधयति श्रुतिरिति वक्त -
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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