SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 495
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४१२ ) "पुरुष" पदं आता है, तो अन्नमय पुरुष में सहस्रशीर्ष आदि धर्मों का उपसंहार करना चाहिए या नहीं ? सही क्या है करें या न करें ? करने में हानि क्या है ? क्योंकि दोनों ही जगह ब्रह्म ही उपास्य है, ब्रह्मत्व और पुरुषत्व में कोई भिन्नता तो है नहीं, इसलिए दोनों विद्यायें एक हैं। उच्यते-पुरुष विद्यायामिवेति । अन्नमयादिषु सहस्रशीर्षवत्त्वादिकं नोपसंहर्तयम । कुतः ? पुरुषविद्यायां यथा पुरुषस्वरूप निरूप्यते । न त थेतरेषां अन्नमयादीनां विज्ञानमयान्तानां स्वरूपं तत्प्रकरणे निरूप्यते । अत्र हि पुरुषत्वमुच्यते सहस्रपदमनेकत्वोपलक्षकम् । अन्यथक्ष्णांशिरोभ्यो द्व गुण्यं वदेत् तेन साकार व्यापकत्वमुक्तंभवति । तत्र पुरुषविधत्वं सचाध्यात्मिकरूपस्तच्छरीराभिमान्यात्मा चान्य आधिदैविक उच्यते न तथात्र । उक्त मत पर सूत्रकार कहते हैं कि-अन्नमयआदि में सहस्रशीर्षआदि धर्मों का उपसंहार नहीं करना चाहिए, क्यों कि पुरुष विद्या में जैसा पुरुष का रूप वर्णन किया गया है वैसा रूप वर्णन अन्नमय आदि से लेकर ज्ञानमय तक नहीं है। पुरुष विद्या में जो पुरुषत्व का वर्णन सहस्र शीर्षा आदि से किया गया है वह, अनेकता का उपलक्षक है । यदि ऐसा न होता तो, आँख कान आदि को शिर से दुगना बतलाते, जिससे कि उसकी साकारता और व्यापकता निश्चित होती। अन्नमय आदि में जो पुरुष रूप है वह आध्यामिक रूप है जो कि अन्नमय आदि शरीरों का अभिमानी आत्मा है उसका दूसरा आधिदैविक रुप है। वैसा वर्णन पुरुष विद्या में नहीं है । ___किंच "पुरुषएवेदं सर्वम्" इत्यादिना प्रपंचात्मकत्वं मुक्तिदातृत्वं चोक्तवा नेतावन्मात्रस्य माहात्म्यमितोऽपि महन्माहात्म्यमस्मीति वक्तु प्रपंचरूपं तद्विभूतिरूपम इति, "एतावानस्य महिमा" इत्यनेनोक्त्तवा तत आधिक्यमाह -",अतोज्यायाँश्चपूरुषः' इति । एवमतिवैलक्षण्यात पुरुषपदमात्र साधम्र्येण नेकविधत्वं वक्तुं शक्यं, नचोपसंहार इति । पुरुष बिद्या में "यह सब कुछ पुरुष है" इत्यादि से पुरुष की प्रपंचात्मकता मुक्तिदातृता बतलाकर, उसका केवल इतना ही माहात्म्य नहीं है, इससे भी महान माहात्म्य है, इस बात को दिखलाने के लिए प्रपंच रूप को उसका विभूति रूप "एतावानस्य महिमा" इत्यादि से बहलाया गया है । उसके बाद
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy