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________________ ( ४८ ) पर ही मोक्ष बतलाती है । “यमेवैण वृणुते तेन लम्यः" इत्यादि श्रुति, आत्मीय मानकर भगवान जीव को अंगीकार कर उसको प्राप्त हो जाते हैं, ऐसा भक्ति मार्ग का समर्थन करती है । "भक्त्यान्नमभिजानाति" ततो मां तत्वतो ज्ञात्वा' इत्यादि भगवद्वाक्य भी भक्तिमार्ग में पुरुषोत्तम ज्ञान से मोक्ष होने की बात की पुष्टि करता है । ज्ञान मार्ग में अक्षर ज्ञान की विशेषता है। "तस्मान्मभक्तियुक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः न ज्ञानं न च वैराग्यं" इत्यादि में भक्तिमार्गीय भक्त के लिए ज्ञान की निरपेक्षता बतलाई गई है। इस प्रकार श्रुतिस्मृति के विरुद्ध भाव से तत्व निर्धारण दुष्कर हो जाता है । दूसरी बात है कि-मत्कामा रमणंजारम्" इत्यादि में ज्ञान रहित ज्ञानमार्गीय भक्तिमार्गीय दोनों की भगवत् प्राप्ति कही गई है जो कि-भगवत्प्राप्ति के साधनों को निरूपण करने वाली श्रुतियों से विरुद्ध प्रतीत होता है । कहीं ज्ञान को मुक्ति का साधन कहा गया है कहीं भक्ति को, दोनों को एक साथ कहीं भी मुक्ति का साधन कहीं नहीं कहा गया है, अतः मुमुक्षु साधक संशयालु होकर किसी ओर भी प्रवृत्त नहीं हो पाता। इसका समाधान “गतेरर्थवत्वमुभयथान्यथा हि विरोधः" सूत्र के अनुसार करते है कि-ज्ञान और भक्ति दोनों से मुक्ति मर्यादा है, उनसे रहित जीवों को भगवान स्वरूप बल से अपनी प्राप्ति करा देते हैं इसे ही पुष्टि कहा गया है। जो जीव जिस मार्ग को अंगीकार करता है उसको उसी में प्रवृत्त कर भगवान उसे तदनुरूप फल देते हैं इस सिद्धान्त को स्वीकारने से उक्त समस्त विरोधों का समाधान हो जाता है । जो जीव मुक्ति की इच्छा से मर्यादा मार्ग को स्वीकारते हैं उनकी श्रवण कीर्तन आदि में प्रवृत्ति होती है, इस मार्ग में श्रवणादि द्वारा पापक्षय होने पर प्रेमोत्पत्ति होती है तब मुक्ति होती है। पुष्टिमार्ग में भगवान भक्त को अंगीकार कर लेते हैं मुक्ति भगवत् अनुग्रह साध्य होती है इसलिए पाप आदि प्रतिबन्धक नहीं होते । इस मार्ग में श्रवण आदि भी भगवत् स्नेह की प्राप्ति की दृष्टि से किये जाते हैं विधिरूप से नहीं किए जाते अतः पाप पुष्टिमार्ग के प्रतिबन्धक नहीं हैं । इस तथ्य की पुष्टि "स्वपादमूलं भजतः प्रियस्य' इत्यादि में की गई है। अष्टम अधिकरण मर्यादा मार्गीय जीवों का सर्वत्र मुक्ति ही का उल्लेख है जब कि पुष्टि मार्गीय जीवों के लिए पुरुषोत्तम प्राप्ति हो फल बतलाया गया है इस पर संशय होता है कि श्रोत मर्यादा और भगवत्सम्बन्ध इन दोनों मागों का समान रूप
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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