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________________ ( ४६ ) तृतीय अधिकरण तैत्तरीयक में — महाभूत को सृष्टि का वर्णन कर" पृथिव्या ओषधयः " इत्यादि में ओषधि आदि की उत्पत्ति का उल्लेख करते हुए अन्त में 'कहा गया "येऽन्न ं ब्रह्मोपास्ते" तो यह उसी वाक्य में पूर्वोक्त अन्नरममय पुरुष की उपासना का उपदेश है या उससे भिन्न पुरुष की उपासना का है ? इस पर पूर्वपक्ष उसी पुरुष की उपासना को मानता है, भाष्यकार इसका निराकरण करते हुए कहते हैं कि प्रथम जिस पुरुष का उल्लेख है वह आधिभौतिक है, दुबारा जिसकी उपासना की चर्चा की गई है, वह आध्यात्मिक है । चतुर्थ अधिकरण इसी प्रकार तैत्तरीय में "सहस्र शीर्षा पुरुषः" इत्यादि में पुरुष विद्या का निरूपण किया गया है, वहीं "ब्रह्मविदाप्नोति परम्" इत्यादि प्रपाठक में "म वा एष पुरुषोऽन्नमयः मे प्रारम्भ कर प्राणमय से लेकर आनन्दमय तक ब्रह्मस्वरूप का निरूपण किया गया है। इस पर विचार करते हैं कि ये भिन्न-भिन्न विद्यायें हैं या एक ही है ? एकत्वेन इनका उपसंहार सम्भव है या नहीं ? पूर्वपक्ष तो इनको भिन्न विद्या मानकर उपसंहार को नहीं स्वीकारता, इस पक्ष का निराकरण करते हुए कहते हैं कि - " सहस्रशीर्षा पुरुषः " में उल्लेख्य पुरुष पद ब्रह्म का वाचक है तथा अन्नमयादि से विज्ञानमय तक जिस पुरुष का उल्लेख है वह विभूति परक हैं उत्तम अधिकारियों को पूर्व पुरुषपद वाची बह्म को उपासना करनी चाहिए विभूतिरूप की नहीं करनी चाहिए यही भाव समस्त प्रकरण का तात्पर्य है, विद्याभिन्न नहीं है अंतः उपसंहार सम्भव है । पंचम अधिकरण अथर्वणिक मुण्डकोपनिषद के " तदा विद्वान पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्युपैति" इत्यादि वाक्य में परमपद शब्द ब्रह्म परक है, यहाँ संशय किया जाता है कि इस वाक्य में जो जीव की ब्रह्म से समता प्राप्त करने की चर्चा है तो वह जीव बह्म के सभी गुणों की समता प्राप्त करता है या कुछ की ? पूर्वपक्ष सभी गुणों की समता मानता है, सिद्धान्ततः कुछी धर्मों की समता स्वीकारते हैं । भाष्यकार का कथन है कि जीव के जो आनन्द ऐश्वर्य आदि धर्म भगवदिच्छा से तिरोहित थे, बह्मसम्बन्ध से उन्हीं धर्मों की समता प्राप्त करता हैं ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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