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________________ ( ३८३ ) न्यून अधिक गुणों की निरूपिका श्रुति, स्वेच्छा से गुणों का बखान नहीं करती । तथा यह भी निश्चित हुआ कि -उपासनायें जब ब्रह्म विज्ञानफलक हैं तो वे सब एक जातीय हैं, ती घट की तरह सभी साधनों की पूर्ति करने की क्षमता उनमें विद्यमान है, श्रुति को उनका इसी रूप में निरूपण करना चाहिए । किन्तु श्रुति तो कहती है कि "नामोक्त्वोपासीत्" इत्यादि । गुणो के आक्षिप्त रूप का वर्णन नहीं करती, उपसंहार की चर्चा करती हों सो भी तो नहीं है "गुणान्नोपसंहार्यान्" ऐसा स्पष्ट निरुपण करती हैं। न च स्वस्वशाखामात्राध्येतॄणां उपासनासिद्धयर्थ सर्वशाखासूपासन प्रकारोक्तिरिति वाच्यम् । परशाखा ज्ञानेन तदुक्तगुणोपसंहारस्याप्यसंभ-बेनो पासनाया एवासंभवापातात् । तस्मात् स्वस्वशाखोक्तप्रकारिकोपासनायामेव सर्वेषामाधिकारात्तयैव ब्रह्मविज्ञानं भवति । तैतरीयाणां वाजसनेयि प्रभृतीनां चाग्निष्टोम संपत्त्या स्वर्ग इव प्रकृते ब्रह्मैक्यात्तत्तद्विज्ञानं ब्रह्मविज्ञानयेव । न हि रूपरसगंधादिमत्यां भुवि पुरुषर्भ देनैकस्यैव चैकैक प्रकारक तद्भज्ञानम्' न तद्भज्ञातम् एतेनानंतधर्मवत्वं ब्रह्मि ज्ञापितम् । तदुक्तं "परास्य शक्तिविविधव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च" इति अत्र स्वाभाविकीति विशेषणादविद्या कल्पितत्वं शक्तीनां निरस्तम । एक मात्र अपनी-अपनी शाखाओं के पाठ करने वालों की उपासना की सिद्धि के बिए, समस्त शाखाओं में उपासना प्रकार का वर्णन किया गया हो, सो भी कहना कठिन है। दूसरे की शाखा के ज्ञान से उनके गुणोपसंहार का भी ज्ञान हो जाय ऐसा भी असंभव है, इसलिए उपासना भी असंभव ही है । इसलिए अपनी अपनी शाखा में बतलावी गयी उपासना के प्रकार के अनुसार की गयो उपासना में ही सबका अधिकार है, उसी से ब्रह्मज्ञान भी संभव है। जैसा कि वाजसनेयी और तैत्तरीय आदि में बतलाये गये अग्निष्टोम के प्रकार का होने वाले स्वर्ग की तरह, समस्त उपासनाओं में एकमात्र उपास्य ब्रह्म ही है अतः उन उपासनाओं के विज्ञान ब्रह्म विज्ञान ही हैं। पृथ्वी में रूप रसगंध आदि की संवेदनाओं के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार का ज्ञान होता है, एक को जैसा ज्ञान होता है दूसरे को वैसा नहीं होता । इससे ही निश्चित होता है कि, ब्रह्म में अनंत धर्म विद्यमान हैं, उसी के लिए श्रुति कहती हैं - 'परमात्मा की अनेक शक्तियाँ सुनी जाती हैं,स्वाभाविकी, ज्ञान बल क्रिया आदि" इसमें स्वभाविकी कह कर अविद्याकल्पित शक्तियों को निरस्त किया गया है।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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