SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 463
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३८० ) सभी शाखाओं का, अपने-अपने शाखोक्त कर्म में ही, अधिकार रहता है, पर शाखा में नहीं रहता, यह नियम उस व्यवस्था के अनुकूल ही है। यदि आनी शाखा से भिन्न किसी अन्य शाखा के कार्य का आचरण किया जाता है अथवा घट बढ़ की जाती है तो उसके लिए "यदस्यकर्मण" इत्यादि मंत्र में प्रायश्चित्त की व्यवस्था की गई है, उन शाखोक्त नियमों के पालन में कारणों का भी उल्लेख किया गया है। कहीं-कही दूसरी शाखा के कर्मों की आचरण व्यवस्था भी कल्पसूत्र में, विकल्प से दी गई है । विकल्प व्यवस्था के अनुसार दोनों शास्त्रीय शाखाओं के धर्मों का उपसंहार स्वभावतः हो सकता है, क्यों कि दोनों के आचरण में एकता हो जाती है इसलिए उनके उपसंहार के सम्बन्ध में शंका नहीं करनी चाहिए। इसके सम्बन्ध में दृष्टात देते हैं-"सववच्च" जैसे कि सप्तसूर्यादि से लेकर शतौदन पर्यन्त होम, अन्य वेदांत वाक्य में उल्लेख त्रताग्नि से भिन्न होने से तथा, अथर्वण में उल्लेख एकग्नि से सम्बन्धित होने से आथर्वणिक में ही कार्य रूप से नियम्य हो सकते हैं। वैसे ही भिन्न-भिन्न शाखाओं में बतलाये गये उन उनके कर्मों में उन्हीं शाखाओं का अधिकार है, अपनी-अपनी शाखाओं में बतलाये कर्मों में थोड़ी भी घट बढ़ करने का नियम नहीं है। प्रकृतेऽपि तद्पोपासना प्रकरणे यावन्तो धर्माउक्तास्तस्मिन् रूपे तावद्धमत्वेनैवोपासना कार्या, तद्बोधकप्रमाणानुरोधाद्, ननु रूपान्तरोपासन प्रकरणोक्तो साधारण धर्मत्वेनापि तथासति मत्स्योपासकस्य चापशरादिकमपि भावनीयं स्यात्ः पुरुषरूपोपासकस्य च लक्षयोजनायमशृंगादिकम् । नन्वाथर्वणोपनिषत्सु श्री रामोपासनायां-“यो वैपे मत्स्यकूर्माद्यवतारा भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनम" इति वाक्येन तदितरावताररूपत्वमुच्यते । तेन तद्धर्मवत्वमप्याक्षिप्यते ? सत्यमाक्षिप्यते तद्धर्मवत्वम् । तत्रायमाभिसंधिः। परमकाष्ठापन्नं "ब्रह्म स्वरूपं इदं" इति ज्ञात्वा हि उपासना कार्या। ते तस्यैवान्येऽवतारास्तत्तः द्रूपेण तानि तानि कर्माण्ययमेव कृतवान् इति ज्ञेयं परम् । न तु तस्मिन्नेव रूपेऽन्यावतार धर्मत्वपीति । तथा च तरिमिंस्तस्मिन्नवतारे तत्तद् धर्मवान् इति श्रुत्या बोध्यते, नतु सर्वत्रापि । तत्र बाधकमुक्तमेव । प्राणाद्युपासनास्वेतावान् विशेषो, यथा कर्मण्यतिरेके प्रायश्चित्त श्रवणं बाधकम् । श्रीरामस्वरूपाद्युपासनासु च तेनावतारेणाकृतकर्मणस्तत्र भावनेऽपराधो बाधको, “योऽन्यथा संतमात्मानम्" इत्यादि वाक्यंच ।" न तथा प्राणाद्युपासनासु अधिकगुणस्येतरत्रोपसंहारै किंचिदेवाधकं दृश्यत् इति सत्कर्तुं शक्यते इति ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy