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________________ ( ३७२ ) यदि कर्म की अर्हता स्वीकारते हैं तो उसी से कर्म को प्रधानता सिद्ध होगी। न यही कह सकते कि, चेतनाधिष्ठित अचेनन कार्यक्षम है, केवल उससे फलावाप्ति संभव भी नहीं है । कर्म का स्वरूप और स्वर्गादि केवल लोक प्रसिद्ध ही नहीं है, अपितु शास्त्र सम्मत भी हैं । अर्थवाद स्वरूप उत्पत्ति वाक्यों में, कर्मो का स्वर्गादिफलसाधक रूप से ही कहा गया है "स्वर्ग की कामना से अग्निष्टोम यज्ञ करना चाहिए “संतान की कामना से अग्निहोत्र यज्ञ करता है" दर्श और पूर्णमास यज्ञों से स्वर्ग की कामना करनी चाहिए "यज्ञ पहिले भो था ब्रह्म इसके द्वारा ही पराकाष्ठा प्राप्त करते हैं" इत्यादि में कर्म की श्रेष्ठता कही गई है उक्त कर्म, फलसाध्यता के लिए ही कहा गया है । लोक में इसके विपरीत भी यदि फल देखा जाय तो भी धर्मिग्राहक के प्रमाण से उसका शास्त्र सम्मत फल ही होता है, उसके सम्बन्ध में किसी प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए। ईश्वरवादी, नित्यज्ञानी की तरह फल पाते हैं। उनके मत से अलौकिक फलावाप्ति में किसी प्रकार का बंधन नहीं रहता इसमें हम और वे एकमत हैं । वे लोग भगवत्भक्ति से कर्मों का नाश मानते हुए भी, श्रुतिसिद्ध कारणता के निर्वाह के लिए, अपूर्व कर्म व्यापार की कल्पना करते हैं । अविषम ईश्वर से, विषम फल की प्राप्ति मानने से वैषम्य नैधण्व दोष, परमात्मा में घटित होंगे। कर्म से ही फल होता है यही जैमिनि का मत है । पूर्व तु बादरायणो हेतुव्यपदेशात् ।३।२।४१।। तु शब्दः पूर्वपक्ष व्युदासार्थः । बादरायणस्त्वाचार्य इतः पूर्वोक्तमीश्वरमेव फलदत्वेन मनुते । कुतः ? हेतुव्यपदेशात् । हेतुत्वेन श्रुतौ उपपदेशादित्यर्थः । "एष उ एवासाधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीयत, एष उ एवासाधु कर्म कारयति यमधो निनीयत" इति श्रुतौ न केवलं कर्मकार यितृत्वमुच्यतेऽपि तु फलदित्सया तया तथात्वमतः फलदत्त्वमीश्वरस्यैव व्यवदिष्टं भवतीति नानुपपत्तिः काचित् । नन्वीश्वरस्य स्वतः फलदाने समर्थस्य फलदित्सायां सत्यां कर्मकारणे को हेतुः १ कार्य वैचित्र्यं च कथमित्यादि चोद्यं निरस्तम् (विद्वन्मण्डने श्री विठ्ठलेन च) अतः सकामैरपि स एव भजनीयोनान्य इति सिद्धम् । ___ तु शब्द, पूर्वपक्ष के निरास के लिए प्रयोग किया गया है। बादरायणाचार्य तो इसके पूर्व भी ईश्वर को ही फलदाता मानते रहे हैं। श्रुति के व्यपदेश से ही उनकी ऐसी मान्यता है । श्रुति में ईश्वर को हेतु बतलाया
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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