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( ३६६ ) भेदव्यपदेश से भी निरूपण हुआ है । "जो इस सूर्य में हिरण्मय पुरुष दीखता है" जो इस नेत्र में पुरुष दीखता है" इत्यादि दो स्थानों के पुरुष का परस्पर धर्मातिदेश दिखलाया गया है । नेत्रस्थित निरूपक अतिदेश ही प्रमाण है । धर्म्यभेद "स एवायम्" में दिखलाया गया है । इस विवेचन से निश्चित होता है कि देशकाल वस्तु स्वरूप आदि चतुर्विध परिच्छेदों से रहित कुछ और भी विवेचनीय वस्तु है।
सामान्यात् तु ।३।२॥३२॥
तु शब्दः पक्षं व्यावत यति । समानस्य भावः सामान्यम् सेत्वाकाशादिशब्दास्तद्धर्मातिदेशार्थमुच्यन्ते, नतु तद्गतं दोषमपिकल्पयन्ति । संसारसागरोतरणोपायत्त्वात् सेतुत्वं निर्लेपायकाशत्वं, कामादिभिर्दोहाय चतुष्पात्वम्, अमृतत्वाय षोडशकलत्वम्, अदुर्लभत्वाय सम्बन्धः । दिव्यत्वाय धर्मातिदेशः । कुण्डपायिनामयने मासाग्नि होत्रवद् गुणार्थमेव वचनं, न दोषार्थमिति न ततोऽन्य शंकोत्पादनीया । तस्मान्न पूर्वोक्ता दोषाः ।
तु शब्द उक्त पक्ष का निवारक है। सेतु आदि शब्द सामान्य अर्थात् समानभाव के द्योतक हैं, सेतु आकाश आदि शब्द परमात्म धर्म के रूप में अतिदिष्ट हैं, उनके दोषों की कल्पना नहीं करते । संसार सागर से पार लगाने वाले उपाय के रूप में सेतत्व रूप को, निर्लेपता दिखलाने के लिए आकाशत्ब रूप को, काम आदि अभिलाषाओं की पति के लिए चतुष्पात्व रूप को, अमृतत्व प्राप्ति के लिये षोडशकलत्व को, अतिदिष्ट किया गया है, इन सब का सम्बन्ध अदुर्लभता का द्योतक है । दिव्यता प्रदर्शन करने के लिए धर्मातिदेश किया गया है। जैसे कि कुड पायी अयन में मासाग्नि होत्र की तरह, गुणार्थ वचन है, दोषार्थक नहीं हैं वैसे ही सेतु आदि भी हैं, इस सम्बन्ध में किसी प्रकार की भी शंका नहीं की जा सकती।
बुद्धयर्थः पादवत् ।३।२॥३३॥
अन्य समानधर्मवत्वं कुत्रोपयुज्यत इत्यत आह बुद्धयर्थः तथा व्यपदेशो बुद्धयर्थः बुद्धरेव प्रयोजनंयस्य । तथोपासनार्थमयुक्तमित्याशंक्य दृष्टान्तमाह । यथा भूतदीनां पादत्वज्ञानमुपासार्थ, तथा तत्तद्गुणवत्वेन ज्ञानार्थ स्वधर्म प्रशंमार्थमेवमुच्यते ।