SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 437
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३५४ ) हरेक में नहीं होती, इसलिए विरोध समाप्त हो जाता है। अविरोध का यही प्रकार है । जिससे दोनों प्रकार की विशेषताओं का सामंजस्य हो सके वैसे ही प्रकार की योजना करनी चाहिए । जैसे कि आकाश के वृद्धि और ह्रास कहने मात्र को हैं, करक आदि में निहित होने के कारण उसकी विभिन्न संज्ञायें होती हैं, वैसे ही ब्रह्म भी वृद्धिह्रास आदि से रहित होते हुए भी जगत के विभिन्न पदार्थों के आकारों में व्याप्त है, इसी से उसकी उभयविध विशेषताओं का समाधान हो जाता है। दर्शनाच्च ।३।२।२१॥ हेत्वन्तरमाह भगवति सर्वे विरुद्धधर्मा दृश्यन्ते न हि हटेऽनुपपन्नंनाम, व्याघातात् । तादृशमेव बद् वस्त्विति त्वध्यवसायः प्रामाणिकः । चकागदुलूखलबंधनादि प्रत्यक्षमेवोभयसाधकं दृष्टमिति । अथो अमुष्यैव ममा कस्येति च । तस्मात् श्रुतिस्मृतिप्रत्यक्षेः सर्वविरुद्ध धर्माश्रयत्वेन ब्रह्म प्रतीतेन विरोधः । उक्त समाधान में दूसरा हेतु प्रस्तुत करते हैं। भगवान में सारे विरुद्ध धर्म देखे जाते हैं, फिर भी वे सब उनमें असंगत नहीं होते, उमका कारण ये है कि परमात्मा वस्तु के अनुसार वैसा ही अध्यवसाय करते हैं, जैसे कि उलूखलबंधन आदि लीलाओं में उन्होंने स्वल्पता और महत्ता, दोनों ही प्रकारों को व्यक्त किया। फिर भी यशोदा उनको अपना अबोध बालक ही मानती रहीं। इग प्रकार हम देखते हैं कि श्र तिस्मृति में परमात्मा को विलक्षण गुणों वाला दिखलाया गया है, इसलिए उनमें विरुद्धता का प्रश्न ही नहीं उठता। प्रकृततावत्वं हि प्रतिषेधति ततो बबीति च भूयः ।३।२।२२।। परमार्थतो विरोधं परिहत्य युक्त्यापि प्रतिषेधति । ननु सर्व विशेष धर्माणां अस्थूलादिवाक्यनिषेधात् कथमविरोधः प्रत्येतव्य इति चेत् ? तत्राहततोब्रवीति च भूयः, तत्रैववाक्ये पूर्व निषेधति तस्मिन्नेव वाक्ये पुनस्तमेव विधत्ते “यतोवाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह, आनन्दं ब्रह्मणो विद्धान्" इति । तथा अस्थूल वाक्येऽपि" एतस्यैव प्रशामने गार्गि, एतद् विदित्वा, आकाश ओतश्च प्रोतश्च" इति । चकारादेकवाक्योपाख्यानभेदी संगृहीतौ। सर्वत्र लौकिकं प्रतिषेधत्यलौकिकं विधत्ते इति युक्तया निर्णयः । तस्माद् युक्त्याप्यविरोध । परमार्थ रूप से विरोध का परिहार करके अब युक्ति से भी करते हैं । यदि कहें कि परमात्मा के समस्त विशेष धर्मों का अस्थूलादि वाक्य से निषेध कर
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy