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________________ हियुक्तोऽयमर्थः । एतस्माज्जातमिति । नहि कार्य कारणयोरेकः प्रकारो भवति । अतो नेति नेतीति प्रकारनिषेधोपसंहारः । स तु समवायित्व मात्रत्वम् । किन्त्वन्यत् परमस्तीति रूपं निरूप्य नाम निरूपयति “सत्यस्य सत्यम्" इति । तेन प्रपंचातिरिक्त ब्रह्मणो विद्यमानत्वात् प्रपंच धर्मवचनं तस्मिन्नौपचारिकमेवयुक्तम् । श्रुत्यैव तथा प्रतिपादनात् चकारः पूर्व युक्त यनुसंधानार्थः । अथो इति प्रक्रम भेदोऽपि । अथात आदेश इति भिन्न प्रक्रमेणाह। श्रुतेरन्यार्थता निराकरणायाह । अपि स्मर्यते "अनादिमत परब्रह्म न सत् तन्नासदुच्यत" इति सदसतोः क्षेत्रत्वात् । ज्ञेय निरूपणे निषेधः । प्रपंचधर्मा भगवति उच्यन्ते वेदादौ, नतु नद्धर्मा भवन्तीति ज्ञापयति । तस्माच्छ तिस्मृतिभ्यामेव तथा निर्णयः।। पुनः प्रकारान्तर से विरोध प्रस्तुत करते हुए उसका निराकरण करते हैं। कहते हैं कि-ब्रह्म जगत् का कारण है, यह तो निश्चित ही है । वह समवायि और निमित्त दोनों ही कारण है। कारण की विशेषतायें ही कार्य में होती हैं । कार्य की विशेषताये यदि कारण में न हों तो श्रुतिविरुद्ध कल्पना की भी जाय । काम आदि गुणों को तो श्रुति भी मानती है, वो ब्रह्म में संभव भी हैं। इसके विपरीत निषेध करने वाली श्रुति भी है । वेदवादियों को वेद के विरुद्ध अणुमात्र भी अन्यथा कल्पना करना उचित नहीं है । इसका परिहार करते हैं कि श्रुति ही परमात्मा में जडजीव धर्मों का अभाव बतलाती है। "देवाव ब्रह्मणो रूपे" ऐसा उपक्रम करके अधिदैवत और अध्यात्म भेद से पंचभूतों का निरूपण करके "अथात आदेशोनेतिनेति''कहते हैं । इस प्रसंग में नेति शब्द प्रकारवाची है जिससे तात्पर्य होता है कि समवायिकारण होने के कारण ब्रह्म स्वयं पंचभूत रूप होता हो सो बात नहीं है । ब्रह्म वैसा रूप वाला नहीं होता यही मानना सही है "एतस्माज्जायते' इत्यादि में स्पष्टतः उक्त बात का निषेध किया गया है। कार्य और कारण का एक प्रकार नहीं होता। इस प्रकार नेति नेति कहते हुए प्रकार निषेध करते हुए प्रसंग का उपसंहार किया गया है। द्वितोय नेति शब्द परमात्मा के समवायित्व मात्र का निषेधक है, उससे यह ध्वनित होता है कि वह केवल समवाय ही नहीं है कुछ और भी है । इस प्रकार प्रकरण में रूप का निर्णय करके "सत्यस्य सत्यम्" इत्यादि नाम का निरूपण करते हैं। इससे यह निर्णय हुआ कि प्रपंच से भिन्न ब्रह्म, प्रपंच जगत में विद्यमान तो है ही इसलिए प्रपंच सम्बन्धी विशेषताओं का उसके लिए जो प्रयोग किया जाता है वह औपचारिक है । श्रुति में ऐसा ही प्रतिपादन किया गया है । पूर्व युक्ति के अनुसंधान के लिए ही उक्त विचार प्रस्तुत किया गया है ऐसा सूत्रस्थ चकार से द्योतित होता है । सूत्रस्थ "अघोपि" पद सूचित करता है कि
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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