SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४३ गतत्व प्रतीतेः। नेतरोऽनुपपत्तरिति सर्वत्र वैलक्षण्यस्योक्तत्वात् । कार्य विशेष धर्माणां कारणे वक्त मशक्यत्वात् । न च कारण धर्मा एव सर्वे कार्य अंशे वा प्रतीयन्त इति वाच्यम् अस्थलमनवेित्यादिवाक्यैः प्रापंचिक सर्वधर्म वैलक्षण्यस्योक्तत्वात । अब विषय निर्धारण के लिए ब्रह्म स्वरूप का विचार करते हैं। इसमें सर्व प्रथम अन्योन्य विरुद्ध वाक्यों का निर्णय करते हैं। अर्थात ज्ञानाधिकारी के संबंध में विचार करने के बाद ज्ञान विषय का निर्धारण करना युक्त ही है। उसके लिए ब्रह्म के स्वरूप का विचार करेंगे इससे ब्रह्म के बोधकता का प्रकार ज्ञात होगा। सब कुछ ब्रह्म ही है ऐसा निर्धारण करने के लिए अधिकरण प्रारंभ करते हैं। समन्वय और अविरोध दोनों से एक ब्रह्म का ही प्रतिपादन किया गया है। जैसे कि कार्य विरोध का परिहार किया वैसे ही ब्रह्म धर्म विरोध कापरिहार भी आवश्यक है । यदिऐसा नहीं करेंगे तो, यह निर्णय कठिन होगा कि वह सधर्मक है या अधर्मक अथवा जीव की तरह सदोष है अथवा सर्वथा दोष रहित है। ब्रह्म के अविरुद्ध स्वगत धर्मों का अग्रिम पाद में विचार किया गया है। उपनिषदों में जो जडजीव संबंधी विवेचन है उनमें कहीं जडजीव धर्मों से भगवान का बोध होता है, कहीं उनका उनमें निषेध है। उसी पर इस अधिकरण में विचार करते हैं। जैसे कि "सर्वकर्मा सर्वकामः" इत्यादि । ये सब जीव के धर्म ही न हों, ये नहीं कहा जा सकता। ऊँचे नीचे कर्मों और कामनाओं की जीव में चेष्टायें देखी जाती हैं। "नेतरोडनुपपत्तेः" सूत्र में ब्रह्म की विलक्षणता बतला चुके हैं। कार्य विशेष के धर्मों की कारण में स्थिति हो ऐसा कहना कठिन है । और न कारण धर्म ही, सब कार्यों या अंश में रहते हैं, यही कहा जा सकता हैं । “अस्थूल अनणु" इत्यादि स्वरूपाव बोधक वाक्यों से ब्रह्म की, प्रापंचिक जगत के समस्त धर्मों से विलक्षणता सिद्ध की गई है। ____ अत्र केचिदविरोधमेवमाहुः । सर्वत्र कारणत्वात् भगवानस्ति ततश्च अस्थूले अस्थूलोऽनणावनणुरुच्चावचकर्तर्युच्चावचकर्ता उच्चावचकामे उच्चावचकामः पृथिव्यां सर्वगन्धो जलादावगन्धः । एवं रसादिषु । एवं स्थानतः परस्योभयलिंगमुपपद्यते । अथवा कारण एव रूपमरूपं चावच्छेदेभेदेन अचिन्त्य सामर्थ्याद वा। अन्यथा असतः सज्जन न प्रसंग इति अपिना संगृहीत इति । एतदुभयमपि न । कुतः ? सर्वत्र हि, सर्वत्रैवैतादृशे रूपं भगवत उपदिश्यते । हि युक्तोऽयमर्थः भगव स्वरूप प्रतिपादिकानि हि एतानि वाक्यानि, न त्वनुवादकानि, वैयर्थ्यापत्तेः अचि न्त्यत्वे ज्ञानानुदयः "तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति" भक्तया मा मभिजानाति" यावान्
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy