SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 424
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४१ मुक्ति के लिए प्रयत्न करना भी व्यर्थ है । इत्यादि संशय करते हुए तु शब्द से परिहार करते हैं । कहते हैं कि वही जीव जाग उठता है। इसका निर्णय चार प्रकार से हो सकता है कर्म, अनुस्मृति, शब्द और विधि। ये ज्ञान कर्म के भेद से लौकिक और वैदिक हैं । लौकिक कर्म में अधूरा किया हुआ कर्म पूर्ण होने पर ही माना जाता है । कोई भी सोया हुआ व्यक्ति जागकर यह नहीं समझता कि मेरा अधुरा कर्म पूरा हो चुका । ऐसा भी नहीं है कि उसे सोने के पूर्व की देखी हुई वस्तु की अनुस्मृति न रहती हो [लौकिक, कर्म और अनुस्मृति की कसौटी पर निर्णय करके अब वैदिक शब्द और विधि की दृष्टि से निर्णय करते हैं कि] 'पुण्य कर्म से पुण्य तथा पाप कर्म से पाप होता है" इत्यादि वाक्य में पुण्य पापात्मक चर्चा भी उक्त बात की ही पुष्टि करती है। "यह उस समय कहाँ था कहाँ से आ गया" इत्यादि वाक्य में भी एक ही व्यक्ति के सोने उठने की बात सिद्ध होती है जहाँ वेद में विधि का उल्लेख है कि "कल होने पर शेष कर्म को समाप्त करेगा" अकेले ही भजन करना चाहिए "बारह रात्रि के लिए वह दीक्षित है" इत्यादि से भी उक्त मत की पुष्टि होती है। सांसारिक मर्यादा की रक्षा के लिए, भगवान ने ही वैसा नियम बना रक्खा है, सोया हुआ जीव ही मर्यादा पालन के लिए, सोकर उठने के बाद तत्पर हो जाता है। पूर्वपक्ष की उक्तियाँ दुर्बल हैं। मुग्धेऽर्द्ध संपत्तिः परिशेषात् ।३।२॥१०॥ किचिदाशंक्य परिहरति । ननु यत्र कर्मानुस्मृतयो न सन्ति तत्राऽन्यो भविष्यति । क्वचिन्मूर्छादिविशेषे सर्व स्मृतिनाशेन मुग्धभावदर्शनात् । तत्र यथा : लौकिक वैदिक व्यवहारास्तथाऽन्यत्रापि भविष्यन्ति । अनुस्मरणादयश्च बुद्धि वृत्तयः । गंगा प्रवाह जलस्य गंगावद् य एव चिदंशस्तत्रायाति स एव तथा भवतु, किं स एवेति ? निर्बनेन्धेत्याशंक्य परिहरति । मुग्धे मुग्ध भावे अर्द्ध संपत्तिरेव, न सर्वा । न हि मुग्धस्य यज्ञादावधिकारोऽस्ति पूर्व प्रवित्तानि तु जीवनाधिकारात् क्रियन्ते । लौकिक व्यवहारोऽपि नापूर्वः सिद्ध यति । पूर्वोक्त हेतु सद्भावे तु न कोऽपि दोषः । अतो मुग्धे अद्ध संपत्तिः पूर्वैव, नोत्तरा । कुत एतत् ? परिशेषात् • स एव वा न वेति निश्चय प्रमाणानामभावात् अर्थात् संदेहोऽवशिष्यते । तस्मात् संदेहान्मुग्धे अर्द्ध प्रतिपत्तिः। न तत्र प्राणायन विघातकृता मूर्जाविचार्यते । तस्याः प्राणधर्मत्वात । यथा वाल्यं शरीर धर्मः। व्यर्थश्च विचारः । जीवावस्था एव हि विचार्यन्ते केवल साक्षिवादस्तु न ब्रह्मवादः । तस्मादेक एव जीवः स्वप्नादि दोष संबंध रहितस्तादृशजन्मयुक्तो भगवज्ज्ञान रहितो ज्ञानाधिकारीति सिद्धम् ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy