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________________ में और आत्मा में [निद्रावस्था में जीव नाड़ियों या आत्मा में प्रवेश करके रहता है] हिता नाम की जो नाड़ियाँ पुरीतत हृदय देश से बाहर रहती हैं [या तो जीव उसमें विश्राम करता है अथवा] हृदय के भीतर जहाँ परमात्मा का निवास है, जीव और इन्द्रियों का भी वही स्थान है [उसमें विश्राम करता है] जब वह हृदय में विश्राम करता है वह भगवत् शक्ति से बाह्य दृष्टि से रहित होकर, अन्तर्दृष्टि से भगवल्लीला में सम्मिलित होकर उसका अनुभव करता है । गाढ़ निद्रा में निमग्न वाह्य ज्ञान रहित वह क्रिया शक्ति से हृदयस्थ परमात्मा प्रवेश करता है, अन्यथा वहिस्थित नाड़ियों में समा जाता है । इसीलिए वृहदारण्यक के षष्ठ अध्याय में-'वह इन हिता नाड़ियों में" अथवा वह इस आत्मा में "इत्यादि दो विभिन्न रूपों के अनुसार “जहाँ सोकर वह कुछ कामना नहीं करता" इत्यादि वाक्य दो बार कहा गया है। सुषुप्ति की दोनों ही अवस्थाओं में ज्ञानशक्ति का सर्वथा अभाव रहता है । इससे निश्चित होता है कि सुषुप्ति में कोई प्रपंच नहीं होता। अतःप्रबोधोऽस्मात् ।।२।। प्रबोधे संदेहः "प्रतियोन्याद्रवति बुद्धान्तायैवेति" जीव समान धर्म प्रकरणे निरूपितम् । ततो नाडीभ्यः पुनर्ह दयदेशं गत्वा भगवतो वा समागत्य जागर्ति ? इति, आहोस्वित यत्र स्थितस्तत एव जागर्ति? इति, तत्र श्रुत्यनुरोधाद् हृदयदेश मागत्य जागर्ति इत्येवं प्राप्ते । ___ अब जागरण के विषय में भी संदेह करते हैं । वृहदारण्यकीय ज्योतिर्ब्राह्मण में उल्लेख है कि "वह जीवात्मा सुषुप्ति में उस परमात्मा के साथ मरण कर के आनन्द भोगकर, जैसे कि-जीवात्मा अन्य लोकों में भोगकर पुनः लौटकर आता है वैसे ही जागने पर भी पुनः इस लोक में लौट आता है" इत्यादि निरूपण किया गया है। संदेह इस बात का है कि-नाड़ियों से, हृदय देश में जाकर भगवान की लीला अनुभव करके जागता है अथवा नाड़ी से ही जागता है ? उक्त श्रुति के वर्णन से तो ज्ञात होता है कि-वह हृदय देश में पहुँचने के बाद ही जागता है। उच्यते-नाडीभ्य एव प्रबोधः । गर्त पतितस्य प्रबोधेहि ततो गमनं । प्रति योन्याद्रवणन्तु भगवत इति । किंच, प्रबोधोऽस्मात् अस्मादात्मनः सकाशादेव प्रबोध : प्रियमेव संपरिष्वक्तस्य बोधाभावे कथमागमनम् ? अतएव संपरिष्वक्तो निविड निद्रः । तस्माद् यत्रैव तिष्ठति तत एव प्रबोध इति सिद्धम् ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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