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३२४ "तस्माद्यत्र क्वच शोचति स्वेदते वा पुरुषस्तेजस एव तदध्यायो जायन्ते "इत्यत्र कारण रूपायां निरूपणे शोकजत्वमपामुक्तम् । अग्ने च "तस्माद् यत्र क्वच वर्षति तदेव भूयिष्ठमन्नं भवति" इति । अतः पंचाग्निविद्यायामपि देव होमात् कारण भूतव वृष्टिर्जातेति नात्र बीजान्तरापेक्षा । शोक पदेन “यदश्रवधीयत तद्रजत हिरण्यमभवत्" इति सहायः सूचितः । यद्यपितत्रान्न शब्देन पृथिवी, तथाप्यत्र, पृथिव्या अग्निसमिद् पत्वादन्नमेव तस्मात् कारणशक्तियुक्ताया वृष्टेरन्न भवति, इति न काप्यनुपपत्तिः ।
अब तीसरी आहुति के सम्बन्ध में विचार करते हैं। इस आहुति में वृष्टि से अन्न होता है, इसलिए इसे सफल आहुति कहना चाहिए। पिछली दो आहुतियों की जानकारी तो शास्त्रों से ही होती है, किन्तु इसमें तो, वृष्टि और अन्न, इन दो साधन और फल का, प्रत्यक्ष होता है। बिना बीज के केवल वृष्टिमात्र से अन्न नहीं होता, बीज का ही फल होता है । केवल निमित्त कारण रूपजल से, अन्न हो जाता हो ऐसा नहीं कह सकते । इसलिए "वृष्टि से अन्न हुआ" ऐसा कथन असंगत है । इस संशय पर कहते हैं कि तृतीय आहुति में वृष्टि का शब्द साम्य होने से, कारणभूत जल का ही ग्रहण होगा। "सदेव सोम्येदमग्र' तत्तेज ऐक्षत् "बहुस्यां प्रजायेय" तदपोऽसृजत् "तस्मद्यत्य क्वच" इत्यादि सृष्टि बोधक श्रुतियों में जिन कारणों का निरूपण किया गया है, उसमें जल को सहायक रूप से दिखलाया है। आगे तो स्पष्ट रूप से कहा गया कि 'जहाँ कहीं वर्षा होती है वहाँ बहुत अधिक अन्न होता है।" इससे निश्चित होता है कि पंचाग्नि विद्या में भी कारणभूत देव होम से ही वृष्टि होती है, उसमें किसी अन्न की अपेक्षा नहीं रहती। "यदश्रवश्रीयत" इत्यादि में शोक पद से सहायक वस्तु का बोध होता है। यद्यपि उक्त सृष्टि प्रसंग में अन्न शब्द, पृथिवी का बोधक है, किन्तु इस पंचाग्निविद्या में पृथिवी को अग्नि रूप तथा जल को समिधा रूप दिखलाया गया है, इसलिए अन्न शब्द अन्न का ही बोधक है। कारण शक्तियुक्त वृष्टि से, अन्न होता है, इसलिए असंभवता नहीं है।
साभाव्यापत्ति रुपपत्तः॥२२॥
किंचिदाशंक्य परिहरति । ननु कारण जलरूप वृष्टिरत्र वक्तुं न शक्यते । यतः समान धूममार्ग श्रुतौ वृष्टेरन्नभावेऐक्ये वा "तस्मिन् यावत संपातमुषित्वा अर्थतमेवाध्वानं पुनर्निवर्तते, ययेतमाकाशम्" इत्यादिना "तिलमापा जायन्ते' इत्यन्तेन !