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________________ ३१५ कर्णानि ग्रहणं पंचाग्नि विद्यायां भिन्न प्रकारत्व ज्ञापनार्थं । तस्मादस्य स्वमते भिन्नत्वान्न शंका न चैस्तरम् नहि पंचाग्नि विद्यायां पुरुषादन्य भावः सम्भवति । प्रकरण परिगृहीता श्रुतिर्नान्यत्र न्याय संपादिका । पंचाग्नि विद्या में प्रकार भेद है, इसी बात को बतलाने के लिए सूत्रकार कर्णानि का नामोल्लेख कर दिया । सूत्रकार के अपने मत में विद्या का प्रकार भिन्न है, अतः अपनी ओर से न शंका है न उत्तर । पंचाग्नि विद्या में स अन्ततः पुरुष भाव के अतिरिक्त, कोई अन्य पशु आदि भाव संभव भी नहीं है, जिसमें उक्त प्रकार की आचरणानुसार निम्नयोनि प्राप्ति की बात उठाई जा सके । प्रकरण जिस श्रुति का उल्लेख है, उसके अतिरिक्त दूसरी जगह की श्रुति से उसका निर्णय हो भी नहीं सकता, न प्रकरणस्थ श्रुति, अन्यत्र की निर्णायक हो सकती है । आनर्थक्यमिति चेन्न तदपेक्षत्वात् । ३।१।१० ॥ नन्वेवं सति चरण श्रुतिरनर्थिका । ज्ञापनायां प्रयोजना भावात् । अतो विधायकत्वं श्रुतेनिष्टानिष्ट फल वोधक श्रुतिवत् अतः कर्मतारतम्येन फलविधानान्निष्कामकर्मकत्तु ज्ञनोपयोगि देहविधानं भविष्यतीति अनुशय सहभावोव्यर्थ इतिचेत् यदि ऐसी बात है कि चरण श्रुति ज्ञापिका मात्र है तो वह निरर्थक है, ज्ञापन में उसका प्रयोजन ही क्या है [ज्ञापन हो जाने से इस जन्म में उसकी उपयोगिता ही क्या है] इसलिए इष्ट अनिष्ट फल बोधक श्रुति की तरह, इस श्रुति की विधायकता मानना ही ठीक है । कर्म के तारतम्यानुसार फलविधान होने से, निष्काम कर्म करने वाले को स्वतः ही ज्ञानोपयोगी शरीर प्राप्त हो जावेगा, अनुशय सहभाव की बात भी व्यर्थ ही है । न, तदपेक्षत्वात् धूमादि मार्गस्य तस्याः श्रुतेरपेक्षत्वात्, काम्येष्टादिकारिणः फल भोगानतरमुत्पत्तौ सुखानन्तरं दुःखमितिन्यायेन पापस्यैवोपस्थितत्वादसमीचीन शरीर प्राप्तिर्मा भवत्विति रमणीयानुष्ठातृणां, रमणीय शरीर प्राप्तिरेव बोध्यते, न न्यायेनासमीचीन शरीरमिति । तस्मादन्य निषेधार्थं सार्थकत्वान्नानुशय प्रतिषेधिका ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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