SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 388
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्यवधान में ये स्वतः प्राप्त होते हैं। मोक्ष प्राप्ति तक तो जल आदि के साथ जीव का चिपकाव होता है उसी के सहारे वह तद्भूत होकर गमन करता है। मरण के बाद ही उसे उन रूपों की प्राप्ति हो जाती है उस पवित्र जीव के साथ समस्त भूत, स्वयं पवित्र होने के लिए उससे संलिष्ट होना चाहते हैं । इसलिए हृदरूप से चिपक जाते हैं। पूर्व शरीर के छूटने अथवा शरीर के दाह हो जाने पर, जीव संबद्ध भूत सूक्ष्म ही उससे आश्लिष्ट हो जाते हैं । इसी का वर्णन वृहदारण्यक के शरीर ब्राह्यण में "तं विद्याकर्नणी हमन्वारभते पूर्व प्रज्ञा च" इत्यादि किया गया है। यज्ञ कर्ता जीव के लिए "ज्ञान कर्मणी" कहा गया है कर्म ही स्वरूपभूत जल है ऐसा-'वेल्थ भया पंचभ्यामाहुता वापः पुरुष वचहो भवन्ति" इत्यादि प्रश्न तथा "असौ वावलोको गौतमाग्नि" इत्यादि निरूपण से निश्चित होता है। प्रश्न में पुरुषत्व प्राप्ति की बात कही गई है, जिनमें जीव का अधिष्ठान होता है ऐसे देह की चर्चा नहीं है। सिद्धवत प्रयोग किया है। निरूपण में भी चन्द्रो भवति" इत्यादि का सिद्धवत् प्रयोग है। वहाँ पर भी, चेतन का राजा सोम है इसी भाव से ऐसा प्रयोग किया गया है। अन्य के आश्रय में अन्य का शरीर तो हो नहीं सकता । अन्न, वीर्य आदि के गर्भ में जीव रहता है । और तरह भी रह सकता है । जीव साथ में रहता है फिर भी जल को ही मुख्य कहा गया है, जैसे कि जीव के शरीर को मुख्य माना जाता है। यह होम ही जीव को उनरूपों में जन्म देता है इसलिए दुःख का कारण नहीं है। त्र्यात्मकत्वात्त भूयस्त्वात् ।३।१॥२॥ ननु कथं भूतसंस्कारमात्रत्वमवगम्यते यावता प्रश्न निरूपणाभ्यामाय एवावगम्यन्ते । न च तावन्मात्र संस्कार कत्वम् । नियामकाभावात् । “अस्थि चैव तेन मांसं च यजमानः संस्कुरुत" इति विरोधश्चेति शंका निराकरोति तु शब्दः । ___ अयामेव ग्रहणेन तेजोऽबन्नानि गृहीतानि ज्ञातव्यानि कुतः ? त्यात्मकत्वात्, लोकादिनिर्माणानतंर भावित्वात, ता आपस्त्रिवत् कृता एव, अतस्त्रयोऽपिगृहीता अपां ग्रहणेन, उपलज्ञणत्वेऽप्यपाभव ग्रहणे हेत्वन्तरमाह । भूयस्त्वात्, शुद्धत्वाद् विशेषाभावान्मध्यभावाच्च दीक्षित तुल्यत्वेन भारुपत्वेनाग्रे वक्तव्यत्वात् । शुद्धायामेवेदं शरीरं बहुहेतुकत्वमेव भूयस्त्वम्, बहुधा परिणामाच्च द्रव्यभूयस्करत्वं च । तस्मान्नि यामकानां भूयस्त्वादपामेव ग्रहणम् । प्रश्न और निरूपण से' जीव की, भूत संस्कार मानता ही कैसे निश्चित करली ? उसके इतने होने मात्र से तो संस्कारकता मिद्ध होती नही क्यों कि
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy