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________________ २६७ ___ इत्येवं प्राप्ते उच्यते, प्राणवता अधिष्ठितं वागादि, कुतः ? शब्दात् "सोऽयमग्निः परेण मृत्युनाऽतिक्रान्तो दीप्यते” इत्यादि अयमर्थः 'द्वयाह प्राजापत्या' इत्यत्राधिष्ठातृत्वं अग्नीनामुक्तम् । देवा इत्यविशेषेणेन्द्रियाधिष्ठात्योऽन्याश्च । तेषां प्रतिबन्धकाऽसुरति क्रमेण स्वर्गलोके गमनेच्छा बभूव । तत्र यज्ञ नैव स्वर्ग इति । “तत्र जनकोह वैदेह" इति ब्राह्मणे 'केनाक्रमेण यजमानः स्वर्ग लोकमाक्रमत'' इत्युद्गात्रत्विजा वायुना प्राणेनेति" उद्गात्रैवाक्रमणमिति सिद्धम् । तत्रान्योद्गातृत्ववरणे तथोद्गाने यो वाचि भोगस्तं देवेभ्य इत्यान्मातम् । तदनुश्रम रूपपाप्मना वेदानतरम प्रतिरूपं वदतीति निरूपितम् । सोऽपि दोषो देवान्नं प्राप्नोति । तच्छ ति विप्रतिषिद्धम्' न" ह वैदेवान् पापं गच्छति''इति। तदनु प्राण एवोद्गाता सिद्धः । तेन अन्येषामपि पाप सम्बन्धो निवारितः । ततः परेण, तस्य चेति सूत्रेण मृत्युमतिक्रान्तो दीप्यत इति । अतो दीप्तमानस्यैवाधिष्ठातृत्वात् प्राणवतैवाधिष्ठानं इति सिद्धम् । उक्त विचार पर सिद्धान्त बतलाते हैं कि वागादि का आधिष्ठान प्राण के पहयोग से है “सोऽयमग्निः परेण" इत्यादि श्रुति से ऐसा ही निश्चित होता है । "द्वयाह प्राजापत्या" इत्यादि श्रुति में, अग्नियों की अधिष्ठातृत बतलाई गई है । "देवा इति" ऐसे सामान्य निर्देश से इन्द्रियों के आधिष्ठाता होते हुए भी ये अन्य ही हैं । "इनके प्रतिबन्धक असुर हैं' उनका अतिक्रमण करके स्वर्गलोक में जाने की इच्छा हई, यज्ञ से ही स्वर्ग मिलना है" इत्यादि "जनकोह वैदेह" श्रुति में कहा गया" यजमान किस क्रम से स्वर्ग लोक को प्राप्त करता है "ऐसा प्रश्न करने पर" उद्गाता ऋत्विक प्राण वायु से" इत्यदि उत्तर दिया गया जिससे उदगाता का क्रम सिद्ध होता है। किसी अन्य को उद्गाता रूप से वरण करने और उद्वान में जो वाणी का भोग होता है, उसे देवताओं का बतलाया गया है । उसके अनुश्रम रूप पाप से, वेदभिन्न प्रतिकूल भाषण होने का उल्लेख किया गया है, उसका दोष भी देवताओं को ही प्राप्त होता है "न हवै देवान् पापं गच्छति" ऐसा श्रुति ने स्पट निषेध किया है। इस सवर्णन से प्राण ही उद्गाता सिद्ध होता है । इस वर्णन से औरों के पाप सम्बन्ध का भी निवारण हो जाता है। इस मूत्र के बाद "तस्य च" इत्यादि सूत्र में मृत्यु का अतिक्रमण करके प्राण की ही प्रांजलता बतलाई गई है यह प्रांजलता अग्नि की अधिष्ठवृता से ही है, दोनों ही एक दूसरे के सहयोगी हैं, इससे वाणवान् का अधिष्ठान सिद्ध होता है । तस्य च नित्यत्वात् ।२।४।१६॥ ___ अग्न्यादेः प्राण सम्बन्धो नित्य इति सर्वदाधिष्ठातृत्वं प्राणस्य तत्संबंधस्य चेति चकारारार्थः । प्राण महायेनैव यथोचित् वर्णोद्गम इति लोके स्वामि
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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