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________________ २६६ ऐसा कोई प्रमाण नहीं है । यदि बुद्धिकृत काल्पनिक मानें तो "सदेव सोम्येदमन" आदि श्रुति से विरुद्धता होगी। ब्रह्म जीव से अतिरिक्त भी नहीं है, यदि ऐसा मानेंगे तो समस्त श्रुति सूत्रों की ही अवहेलना हो जावेगी, "यः सर्वज्ञः सर्वशक्तिः, अयमात्मा अपहत पाप्मा अधिकं तु भेदनिर्देशात्" इत्यादि में बोध होगा। इस लिए वैदिक शिष्ट मार्ग में घुसने के लिए सदंश के बोधक वाक्यों को स्वीकारने वाले माध्यमिक बौद्धों के दूसरे अवतार (शंकराचार्य) के मत की वैदिकों को सदैव उपेक्षा करनी चाहिए। उत्क्रांतिगत्यागतीनाम् ॥२॥३॥१६॥ अतऐवति वर्तते । स यदास्माच्छरीरादुत्क्रामति सहैवेतैः सर्वैरुत्क्रामति । ये के चास्माल्लोकात् प्रयान्ति चन्द्रभसमेव ते सर्वे गच्छन्ति इति । तस्माल्लोकात् पुनरेत्यस्मै लोकाय कर्मणे, "श्रुत्युक्तानामुत्क्रांत्यगत्यागतीनां श्रवणाद् यथायोग्यं तस्य परिमाणमंगीकर्तव्यम् । यद्यपि आरानमात्री ह्यपरोऽपि दृष्ट इति श्रुत्यैव परिमाणमुक्त तथापि बहुवादिविप्रतिपन्नत्वात् मुक्तिभिः साधयति । ब्रह्मवैलक्षव्यार्थमुत्क्रांतिपूर्वकत्वमुक्तम् । "जब वह जीव इस शरीर को छोड़कर जाता है तब उसके ये सभी इन्द्रियाँ प्राण आदि उत्क्रमण करते हैं" जब वे सब इस शरीर को छोड़कर चन्द्रमस मार्ग में जाते हैं “परलोकों से पुनः इस लोक में कर्मानुसार आता है" इत्यादि श्रुतियों में जीव की उत्क्रांति गति और आगति का स्पष्ट उल्लेख है, इससे जीव के परिमाण को स्वीकारना चाहिए । यद्यपि "आराग्रमात्रो' इत्यादि श्रुति में जीव के परिमाण का वर्णन है, फिर भी अनेक प्रकार के वर्णनों से युक्ति से परिमाण का निर्णय किया जाता है । जीव ब्रह्म से भिन्न है, ये बतलाने के लिए ही उत्क्रांति का उल्लेख किया गया है। स्वात्मना चोत्तरयोः २॥३॥२०॥ उत्क्रांन्तिगत्यागतीनां पंबंधे इन्द्रियादिभिः परिष्वंगोऽप्यति, ततः संदेहोऽपि भवेत किमुपाधित एतेषां संबंधो भवेत स्वतो वेति ? उत्तरयोर्गत्यागत्योः स्वात्मना केवलस्वरूपेण ऊर्णनाभिर्यथा तन्तून सृजते संचरत्यपि जाग्रतस्वप्ने तथा जीवो गच्छत्यागच्छते पुनः । ब्रह्मोपनिषत् । अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य ब्रह्माऽप्येति । कामरूप्यनुसच्चरन्निति वा। अथवा, उत्क्रांतिगत्यागतीनां जीव संबंध एव बोध्यते। नाऽणुत्वम् । स्वात्मनाचोत्तरयोरित्यणुत्वम् । अंगुष्ठ
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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