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________________ २६४ ओषधय ओषधीभ्योऽन्नम्" इत्यग्रे वर्त्तते । तथा सति पृथिवीमोषधीश्च सृष्ट्वा आपोऽन्नं सृजति । आहोस्वित अन्न शब्देनैव पृथवी इति ? नन्वेवमस्तु पृथि कोषधि सृष्ट्यनन्तरमन्न सृष्टिरिति चेत् । न, छांदोग्य श्रुतेरपेक्षा भावान्महाभूत मात्र - स्यैवाभिलषितत्वात् एकपद लक्षणा पेक्षया तत्स्वीकारस्य गुरुत्वात् पूर्वोक्त एव संशयः । “उन जलों ने विचार किया अनेक रूपों में उत्पन्न हों" उन्होंने अन्न की सृष्टि की " इत्यादि में संदेह होता है कि यहाँ अन्न शब्द ब्रीहि आदि धान्य का बची है या पृथिवी का ? यदि कहें कि संदेह की क्या आवश्यकता है, पहिले की तरह उपजीव्य श्रुति की बलवत्ता से ही निर्णय कर लो, सो नहीं बनता "जलों से पृथिवी, पृथिवी से ओषधियाँ, ओषधियों से अन्न हुआ" ऐसा उसमें आगे स्पष्ट उल्लेख है । इसके अनुसार तो यही निर्णय होता है कि पृथिवी और औषधियों की सृष्टि कर जल अन्न की सृष्टि करते हैं। क्या अन्न शब्द से पृथिवी भी संभव है ? पृथिवी और ओषधियों की सृष्टि के बाद ही अन्न की सृष्टि हुई ऐसा समझ में आता है । ये अनुमान ठीक नहीं है, ऐसा मानने से छांदोग्य से भेद होगा, छांदोग्य के अनुसार ही अर्थ करना चाहिए। उसमें महाभूतों की सृष्टि का ही केवल उल्लेख है, एक पद की लक्षणा की अपेक्षा छांदोग्य को स्वीकारना ही ठीक है क्योंकि उसका गौरव है, यदि ऐसा नहीं करेंगे तो जैसा संशय आकाश आदि के संबंध में था वैसा ही होगा समाधान न होगा । तत्र "अन्नमयं हि सौभ्य मन आपोमयः प्राणस्तेजोमयी वाग्” इति व्याणां सहचारः सर्वतोपलभ्यते । लोक प्रसिद्धिः वर्षण भूयिष्ठ लिंगंच, तस्मात् पृथिव्योष - यन्नानां मध्ये अभेद विवक्षया मत् किंचित् वक्तव्ये अन्नमुक्तम् । उक्त प्रसंग में वर्णन आता है कि - " हे सोम्य ! अन्नमय मन, जलमय प्राण, तेजोमयी वाणी है" इस प्रकार तीनों का साहचार्य वेदांत में सर्वत्र मिलता है । लोक में भी भूमिष्ठवर्षा के रूप में जल का बहुबचन प्रयोग मिलता है । इसलिए पृथिवी औषधि और अन्न इन तीनों को जल के माध्यम से अभिन्न मानकर अन्न शब्द का ही केवल उल्लेख किया गया है । इत्येवं प्राप्ते उच्यते, अन्न शन्दे पृथिवी, कुत: ? अधिकार रूप शब्दान्तरेभ्यः । अधिकारो भूतानामेव, न भौतिकान्यं, नीलं च रूपं पृथिव्या एव, भूत सहपाठात् शब्दान्तम् ‘“अद्द्भ्यः पृथिवी " इति तस्मादन्न शब्देन पृथिव्येव ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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