SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ द्विविधाः हि वेदांते सृष्टिः । भूतभौतिकं सर्वं ब्रह्मण एव विस्फुल्लिंग - न्यायेनैका । अपरा वियदादि क्रमेण । सा चानामरूपात्मना नामरूपत्ववत्वेनाभि व्यक्तिः । सजsस्यैव कार्य त्वात् तस्य जीवस्य त्वंशत्वेनैव न नाम रूप संबंध: । अनित्ये जननं नित्ये परिच्छिन्ने सभागमः । नित्या परिच्छितनौ प्राकट्यं चेति सा त्रिधा || वेदान्त में दो प्रकार से सृष्टि का वर्णन मिलता है । एक तो सारा भूत भौतिक जगत् ब्रह्म से ही अग्नि की चिनगारियों की तरह निकला है, दूसरे आकाश आदि के क्रम से सृष्टि हुई है । वह सृष्टि नाम रूप रहित थी, नाम रूप अभिव्यक्त हो गई। जड़ सहित ही जीव कार्य रूप है किन्तु परमात्मा का अंश होने से जीव का नाम रूप से कोई सम्बन्ध नहीं है। सृष्टि अनित्य है, । नित्यता के परिच्छिन्न होने पर ही वस्तुएँ संगठित होती हैं, नित्य और अपरिच्छिन्न जीव में ही ब्रह्म का प्राकट्य होता है, इस प्रकार सृष्टि के तीन रूप हैं । तत्र क्रम सृष्टौ सन्देहः, छांदोग्येहि "सदेव सोम्येदमग्र आसीत् एक मेवाद्वितीयम्" इत्युपक्रम्य " तदैक्षत तत् तेजोऽसृजतेति तेजोऽवंन्न सृष्टिरुक्तां, न वाय्वाकाशयोः । तैत्तरीयके पुनर्ब्रह्मविदाप्नोति परमित्युपक्रम्य " तस्माद् वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः" इति आकाशादि सृष्टिरुक्ता । उभयमपि क्रमसृष्टिवाचक मित्येक वाक्यता युक्ता । छांदोग्ये मुख्यतया सृष्टिस्तैत्तरीये गौणी, मुख्यात्वग्रे वक्ष्यते, "सोऽकामयत" इत्यादिना । दूसरे प्रकार की जो क्रम सृष्टि है उसका विभिन्न प्रकार से वर्णन मिलता है उसी पर संशय होता है । छांदोग्य में " सदेव सोम्येदमग्र" इत्यादि उपक्रम करके "तत्तेजोऽसृजत" इत्यादि में तेज जल और पृथ्वी की सृष्टि का वर्णन है वायु और आकाश का उल्लेख नहीं है । तैत्तरीयक में "ब्रह्म विदाप्नोतिपरम" इत्यादि उपक्रम करके " तस्माद् वा एतस्माद्" इत्यादि में आकाश आदि सभी की सृष्टि का वर्णन किया गया है। दोनो में ही क्रम सृष्टि का उल्लेख है इसलिए दोनों में एक वाक्यता तो है ही । छांदोग्य में मुख्य रूप से उल्लेख है और तैत्तरीयक में गौण रूप से, इसीलिए मुख्य को आगे "सोऽका मयत" इत्यादि में वर्णन किया गया है । तत्र संशयः, किमाकाशम् उत्पद्यते न वा ? कि तावत प्राप्तम् । नोत्पद्यत इति कुत: ? अश्रुतेः श्रुन्ति वादिनां श्रुत्यैव निर्णयः श्रुतौ पुनर्मुख्ये क्रम सृष्टौ श्रूयते ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy