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________________ २७२ जाता है, जो कि ठीक न होगा। उससे ईश्वर में भोगासक्ति सिद्ध होगी। अन्तवत्वमसर्वज्ञतावा ॥२॥२॥४१॥ ईश्वरः प्रकृति जीव नियमार्थमंगीकृतः । तत्त तयोः परिच्छेदे स भवति । ततश्च लोकन्यायेन जीवप्रकृत्योरन्तवत्वं भवेत् । ततः च अनित्यातायां मोक्ष शास्त्र वैफल्यम् । एतद्दोष परिहाराय विभुत्वनित्यत्वेंगीक्रियमाणे सम्बन्धाभावादसर्वज्ञतावा स्यात् तस्मादसंगतस्ताकिंवाया । तार्किक ईश्वर को केवल जीव और प्रकृति नियमन करने वाला ही मानते हैं । वह नियमन भी जभी संभव है जबकि जीव और जड़ की इयत्ता हो । इसलिए नियमन के लिए उनकी इयत्ता माननी पड़ेगी। इयत्ता मानने से, लौकिक वस्तुओं की तरह इन्हें भी अन्तवान मानना पड़ेगा । अन्तवान वस्तु अनित्य होती है, इसलिए मोक्ष की बात कहना व्यर्थ है । यदि इस दोष का परिहार करने के लिए दोनों का विभुत्व और नित्यस्व स्वीकारो तो ईश्वर का सम्बन्ध विच्छेद हो जायगा पोर उसकी प्रसर्वज्ञता सिद्ध होगी। इसलिए तार्किक बाद प्रसंगत है। उत्पत्यसंभवात् ।।२।४२॥ भागवतमते कंचिदंशं निराकरोति । ते च चतुव्यू होत्पत्ति ववंति । वासुदेवात्संकर्षणस्तस्माप्रम म्नस्तस्मादनिरुद्धः-इति । तत्रैतेषामीश्वरत्वं सर्वेषामुतसंकर्षणस्यजीवत्वं, अन्यान्यत्वं उत्पत्तिपक्ष, जीवस्योत्पत्ति संभवति । तथासति पूर्ववत् सर्वनाशः स्यात् । भागवत मत के कुछ अंश का निराकरण करते हैं, वे चतव्यूह की उत्पत्ति बतलाते हैं । वासुदेव से संकर्षरण, उनसे प्रम म्न उनसे अनिरुद्ध इनमें सब को ईश्वर और संकर्षण को जीव कहते हैं । इसमें जो एक । दूसरे से उत्पत्ति की बात है वह समझ में नहीं आती। जहां तक उत्पत्ति की बात है जीव की उत्पत्ति तो होती नहीं। यदि ऐसा मानेंगे तो वह अनित्य सिद्ध होगा, फिर मोक्ष मी बात भी प्रसिद्ध होगी सारा मत ही ग्वंस हो जायगा। न च कत्त:करणम् ।२।२।४३॥
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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