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________________ २६ε कहाँ तक कहें, बाह्यवाद पर जितना जितना विचार करो उतना उतना असम्बद्ध प्रतीत होता है इसलिये अब और अधिक विस्तृत विचार नही करेंगे, ये वेद विरुद्ध तो है ही । ४ अधिकरण नेकस्मिन्न संभवात् |२| २१३३॥ विवसन समयो निराक्रियते । ते ह्यन्तनिष्ठाः प्रपंचे उदासीनाः सप्त विभक्तीः परेच्छया वदन्ति । स्याच्छन्दोऽभीष्टवचनः अस्तिनास्त्यवक्तव्यानां प्रत्येक समुदायाभ्यां स्यात्पूर्वकः सप्तप्रकारो योजयन्ति । तद् विरोधेनासंभवादयुक्तम् । भवति, तदेकस्मिन् अब निर्वस्त्र जैन मत का निराकरण करते हैं । वे लोग प्रन्तनिष्ठ प्रपंच करते हैं, स्यात् शब्द समुदाय को वो स्यात् से उदासीन होकर सप्त विभक्ती की बात प्रवश होकर उन्हे अभीष्ट है । अस्ति नास्ति कहते हुए प्रत्येक पूर्वक कहते हैं, इस प्रकार उनके सात प्रकार हैं, जोड़ते हैं । परस्पर विरुद्धतायें एक में कदापि सम्भव नही हैं, इसलिए यह असंगत मत है । उन सबको एक में ही एवं चात्माऽकात्स्यंम् | २|२|३४|| ननु कथं बहिरुदासीनस्य तदूषणमत श्राह । एवमपि सति स्वात्मनो वस्तु परिच्छेदादकात्स्य॑म् सर्वत्वम् । अथवा शरीर परिमाण श्रात्मा चेत तदा सर्व शरीराणामतुल्यत्वादात्मनो न कास्यं न कृत्स्नशरीर तुल्यत्वम् । जब वे बाह्य जगत से उदासीन ही हैं तो उनके मत में क्या दोष है ? इस पर कहते हैं कि उदासीन होने पर भी, आत्मा जब जागतिक वस्तुओं से भिन्न है तो सर्वस्व तो सम्भव है नहीं । यदि प्रात्मा शरीर के आकार का है तो सारे शरीर एक से तो होते
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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