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________________ २६७ वे कहते हैं कि ज्ञान के अतिरिक्त प्रपंच का अस्तित्व नहीं है । ये बात समझ में नहीं आती, इस प्रपंच का प्रभाव तो है, नहीं इसकी तो प्रत्यक्ष उपलब्धि हो रही है, इसको देखते हुए भी यदि कहें कि नहीं देख रहे हैं तो आपके इस कथन को क्या उपादेयता है । वैधर्म्याच्च न स्वप्नादिवत् | २२|२६|| ननूपलब्धि मात्रेण न वस्तु सत्वम् । स्वप्नमाया भ्रमेप्यन्यथा दृष्टत्वादिति चेत्, न वैधर्म्यात् स्वप्नादिषु तदानीमेव स्वप्नान्ते व वस्तुनोऽन्यथाभावोपल म्भात् । न तथा जागरिते, वर्षानन्तरमपि दृश्यमानः स्तम्भः स्तम्भ एव । स्वस्य मोक्ष, प्रबृत्ति ब्याघातश्चकारार्थः । यदि कहें कि उपलब्धि होने मात्र से वस्तु की सत्यता सिद्ध होती हो ऐसा कोई नियम नहीं है, यह जगत तो, जैसे स्वप्नमाया श्रमात्मक है, वैसे ही है । यह कथन भी सुसंगत नही हैं, स्वप्न और जागरित दोनों में बड़ा भेद है, जगत की अनुभूति तो जागरित अवस्था में स्पष्ट होती है । स्वप्न दृष्ट वस्तु तो स्वप्नान्त होने से बाद प्रदृष्ट हो जाती है किन्तु जगत में जो नुभूति होती है वह तो निरन्तर स्तम्भ, एक वर्ष बाद भी स्तम्भ ही अपने मोक्ष में भी ऐसी भ्रमात्मक प्रवृत्ति, घातक होगी [ अर्थात् जब सब कुछ असत्य ही है तो, बन्धन ही किसका है जिससे मुक्त होने की बात हो ।] होती रहती है, देखा जाता हैं । आज का देखा हुआ दूसरी बात ये हैं कि न भावोनुपलब्धेः | २|२|३०|| यदप्युच्यते, बाह्यार्थव्यतिरेकेणापि वासनया ज्ञानवैचित्र्यं भविष्यतीति । तन्न, वासनानां न भाव उपपद्यते । त्वन्मन्ते बाह्यार्थस्यानुपलब्धेः । उपलब्धस्य हि वासना जनकत्वं, अनादित्वेत्वन्धपरंपरान्यायेनाप्रतिष्ठेव | अर्थव्यतिरेकेण वासनाया अभावात् वासनाव्यतिरेकेणाप्यथोपलब्धे रन्वयव्यतिरेकाभ्यामर्थसिद्धिः । क्षणिक विज्ञानवादियों का जो यह कथन है विषयों से भी वासनात्मक विचित्र ज्ञान होता है। कि-- जागतिक वाह्य उनका यह कथन भी
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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