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________________ २६४ निरोधों में भी प्राप्ति सम्भव नहीं है क्योंकि इसमें सन्तति का विच्छेद नहीं होता । पहिला निरोध पदार्थ विषयक होने से व्यर्थ है, दूसरा क्षणिक वाद को मानने से ही प्रसिद्ध है इसलिए वह भी मान्य नहीं हो सकता। उभयथा च दोषात् ।२।२।२३॥ प्रतिसंख्यानिरोधान्तर्गताविद्याविनाशे मोक्ष इति क्षणिकवादिनो मिथ्यावादिनश्च मन्यन्ते । अविद्यायाः सपरिकराया निर्हेतुकविनाशे शास्त्र वैफल्यम् । अविद्यातत्कार्यातिरिक्तस्याभावान्न सहेतुकोऽपि । नहि बन्ध्यापुत्रेण रज्जुसोनश्यते । प्रत उभयथापि दोषः। प्रतिसंख्यानिरोध में प्रविद्या विनाश से मोक्ष की सम्भावना क्षणिकवादी और मिथ्यावादी दोनों ही मानते हैं। पर वह सपरिकरा प्रविद्या किन हेतुओं से नष्ट होती है ? इसकी कोई चर्चा नहीं है इसलिये यह शास्त्र इसमें असफल है। यदि इनकी अविद्या का किन्हीं हेतुओं से नष्ट होना सम्भव भी हो तो, अविद्या के कार्य के अतिरिक्त तो कोई वस्तु इनकी अविद्या में है नहीं जिसके नाश की बात ये करते हैं। अविद्या के कार्य तो स्वतःही अल्पकालिक होते हैं, उनके नाश की चर्चा ही क्या है ? ये तो वैसी ही बात हुई जैसे कोई मूर्ख कहे कि बन्ध्या के पुत्र ने रस्सी रूपी सर्प का नाश कर दिया इस प्रकार दोनों प्रकार से यह दोषपूर्ण मत है । प्राकाशे चाविशेषात् ।२।२।२५॥ यच्चोक्तमाकाशमप्यावरणाभावो निरुपाख्यपिति तन्न प्राकाशेऽपि सर्वपदार्थवद् वस्तुत्व व्यवहारस्य विशेषात् । जो यह कहते हैं कि प्राकाश का आवरणाभाव भी निरूपणीय है, वह प्रसंगत बात है, आकाश में भी सब पदार्थों की तरह साधारणतः वस्तुत्व व्यवहार होता है। अनुस्मृतेश्च ।२।२।२५॥ सर्वोऽपि क्षणिकवादो बाधितः। स एवायं पदार्थ इत्यनुस्मरणात। अनुभवस्मरणयोरेकाश्रयत्वमेकविषयत्वं च ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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