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________________ २४७ असव्यपदेशान्नेतिचेन्न धर्मान्तरेणवाक्यशेषात् ॥२॥११६॥ "असद् वाइदमन पासीत्" इति श्रुत्या प्रागुत्पत्तः कार्यस्यप्रसस्वं बोध्यत इति चेन्न । अध्याकृतत्वेन धर्मान्तरेण तथाध्यपदेशः । कुत्ता ? वाक्यशेषात् । “तदात्मानस्ववमकुरुत" इति स्वस्मैव क्रियमाणत्वात्, इदमासीत्पद प्रयोगाच्च । यदि कहें कि-' यह पहिले असते ही था" इस श्रति से तो उत्पत्ति के पूर्व कार्य को प्रसत्व ज्ञात होता है ? तो आपका संशय व्यर्थ है, ये असत्व की बात, अध्यक्त और दूसरे रूप में होने की प्रोर इंगन कर रही है। उक्त वाक्य के अंत में स्पष्ट रूप से "उसने उस समय अपने को स्वयं व्यक्त किया" इत्यादि से स्वयं की क्रियमाणता बतलाई गई है" "इदं" मऔर "प्रासीत्" पद भी सत्ता का ही द्योतन कर रहे हैं । युक्तः शब्दान्तराच्च ।२२१॥१८॥ युक्तिस्तावत् - समवेतमेव कार्य सदुत्पाद्यत इति संबंधस्य द्विनिष्ठत्वानित्यत्वाच्च कारणान्तरेणापि परंपरया संबंधः असंबद्धोत्पत्ती तु मिथ्यात्वमेव । प्रवृत्तिस्त्वभिव्यक्त यर्थमिति । शब्दान्तरं सच्छान्दादास्मशब्दः “मात्मानं स्बमकुरुते" इति । उक्त बात पर युक्ति देते हैं कि समस्त सत्तात्मक जगत एक साथ उत्पन्न होता है ऐसा मानें तो सबंध की द्विनिष्ठता और अनित्यक्षा होती है जिससे कारणान्तर से भी परम्परित संबंध निश्चित होता है, असंबद्ध उत्पत्ति में तो मिध्यात्व है ही। फिर तो अभिव्यक्ति की प्रवृत्ति ही व्यथं सिद्ध होगी। इसलिए सत् शब्द को प्रात्म शब्द का पर्याय मानना चाहिए "मात्मानं स्वयभकुरुते "वाक्य सत् शन्द के पर्याय का ही वाचक है। पटवच्च १२।१११६॥ यथा संवेष्टितः पटो न व्यक्त गृह्मले, विस्तृतस्तु गृह्यते, तथाऽविर्भावामाविर्भावन जगतोऽपि । जैसे कि-~लपटा हुआ कपड़े का थान अच्छी तरह समझ में नहीं पाता, 'फैलाने पर ही समझ में आता है, वैसे ही, यह जमत नी आविर्भूत होने से "समझ में पाता है।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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